क्या ‘पदमश्री’ के भूखे हैं नेगीदा ?

By Deepak Azad// जनप्रिय गायक नरेन्द्र सिंह नेगी आज जिस मुकाम पर खड़े हैं वहां तक हर कोई नहीं पहुंच पाता है। नेगीदा ने उत्तराखंडी समाज को अपनी मेहनत, लगन और प्रतिभा के जरिये जो कुछ रच-बुनकर दिया है वह असाधारण है। लेकिन इससे अहम योगदान उनका किसी चलाताउ किस्म के गायक से इतर जनता की पीड़ा को, उसके सरोकारों को अपनी वाणी देना है, जो उन्हें दूसरों से अलग करता है। यही वह चीज है जो उन्हें भीड़ से पृथक करती है और जनता के दिलों में उनके लिए एक अनूठा स्पेस निर्मित करती है। जनसरोकार ही वह चीज है जो नेगी को जनता के करीब लाता है और उनके चाहने वालों को उन्हें भरपूर प्यार का हकदार बनाता है। जनता का यही यह वह प्यार है जो किसी भी सरकारी पुरस्कार को नेगी जी के व्यक्तित्व के आगे दोयम दर्जे का बना देता है। अगर जनता का यह प्यार नहीं होता तो शायद नेगीदा का 66 वां जन्मदिन किसी जलसे की तरह नहीं मनाया जाता। आखिर कितने ऐसे लोकगायक हुए हैं या हैं जिनके जन्मदिन पर जनता की ओर से पूरे धूम धड़ाके के साथ समारोह मनाया जाता हो। कम से कम मेरी स्मृति में तो अभी तक ऐसा कुछ नहीं है। ऐसे में मेरे जैसों के लिए यह बात तो खटकने वाली है कि नेगीजी खुदके लिए पदमश्री टाइम किसी पुरस्कार की मांग करें! क्या जनता के प्रेम से बड़ा कोई सरकारी पुरस्कार हो सकता है, जो किसी को भी मिल सकता है, जैसे कसाई टाइप लोगों को भी। पदमश्री पुरस्कारों की हकीकत आखिर कौंन नहीं जानता? ऐसे भी कम मौके नहीं आए जब जनसरोकारों से जुड़े रहने वालों ने ऐसे पदमश्री टाइम पुरस्कारों को ठुकरा दिया। तो क्या नेगीजी को ऐसे किसी पुरस्कार की भूख है जिसे पाकर हीं उनको अपने काम पर नाज होगा? यह सवाल इसलिए उठा रहा हूं कि नेगीजी के आफिसियल फेसबुक अकाउंट से उस हरीश रावत से मांग करते हुए कहा गया है कि इस बार वे पदमश्री के लिए नेगीजी के नाम का प्रस्ताव भेजें, जो भ्रष्टाचार में गले तक डूबा हुआ है। हाल ही में शराब सीडी के रूप में सबने देखा कि कैसे इस राज्य के सीएम का कार्यालय दलालों का अखाड़ा बना हुआ है। मेरी व्यक्तिगत राय है कि नेगीजी के लिए जनता का प्रेम ही किसी ऐसे पदमश्री से ज्यादा मूल्यवान है। अगर नेगीदा के मन के किसी कोने में पदमश्री पाने की भूख हिलोरे मार ही रही है तो मुबारक हो उन्हें। हमारे लिए तो बिना पदमश्रीnegida वाले नेगीदा ही अच्छे हैं।

त्रिपुरा के सीएम माणिक सरकार से सींखें हरीश रावत

Deepak Azad// manikदलालों, भ्रष्टाचारियों व माफिया को संरक्षण देने के आरोपों में घिरे सीएम हरीश रावत ने पिछले दिनों एक गीदड़ भभकी दी कि जो उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं वे अपनी संपित्त की अदला-बदली उनके साथ कर लें। हरीश रावत ने सत्ता में रहते हुए माल बनाया है या नहीं, य तो जांच का सवाल हो सकता है, लेकिन जिस तरह करोड़ों रूपयों से तैयार सीएम आवास में वे केवल इसलिए जाने को तैयार नहीं हैं कि उन्हें लगता है कि जो भी सीएम उस आवास में गया उसे कुर्सी से हाथ धोना पड़ता है? आजतक वे नये सीएम आवास में प्रवेश न करने का वाजिब कारण नहीं बता सके हैं। दूसरी ओर हरीश रावत ने देहरादून के पाॅश इलाके डालनवाला में अपने लिए कुर्सी से हटने के बाद के लिए आलीशन बंगले का निर्माण भी शुरू करा दिया है। मसूरी-देहरादून विकास प्राधिकरण के इस पुराने कार्यालय को तोड़कर इन दिनों वहां एक भव्य भवन बन रहा है। माना जा रहा है कि हरीश रावत ही इस भवन को अपना ठिकाना बनाएंगे। जिस राज्य की आर्थिक स्थिति लगातार खराब होती जा रही है, उस राज्य में इस तरह किसी सीएम द्वारा करोड़ों रूपये फूंकना कहां तक उचित है? खुद को स्वयंभू गाड़-गदेरों का बेटा कहलाने वाले हरीश रावत अगर कुछ सीखना चाहते हैं तो उन्हें त्रिपुरा के सीएम माणिक सरकार से सीखना चाहिए। वे माणिक सरकार जिनको मुख्यमंत्री रहते हुए डेढ दशक से ज्यादा हो गए हैं, लेकिन उनके पास न तो अपना घर हैं, और नहीं कोई बैंक बैंलेंस या फिर जमीन। अगर हरीश रावत, माणिक सरकार से कुछ सीखने ही चाहते हैं तो उन्हें पहले-पहल अपने और अपने परिवार की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करना चाहिए, ताकि इस राज्य की जनता को पता चल सके िकइस गाड़-गदेरों के बेटे के परिवार के पास क्या कुछ है। क्या हरीश रावत ये सब कुछ करने का साहस रखते हैं?

डोबरा-चांठी पुलः सीएम आॅफिस ने दबाई जांच रिपोर्ट

WatchDog/Deharadun प्रतापनगर को टिहरी से जोड़ने वाले डोबरा-चांठी पुल के नाम पर भ्रष्ट नेता, नौकरशाह, इंजीनियरों व ठेकेदारों के गठजोड़ ने 130 करोड़ रूपये चट कर लिए, लेकिन अभी तक पुल के नाम पर दो पिलर के सिवा कुछ भी काम नहीं हुआ। सच्चाई ये भी है कि दक्षिण कोरियाई कंपनी द्वारा तैयार की गई नई डीपीआर के मुताबिक ये पिलर भी अब किसी काम के नहीं हैं। सीएम हरीश रावत अब 15 अगस्त से पुल का निर्माण शुरू करने की बात कर रहे हैं, लेकिन अब तक इस पुल के नाम पर हुए घोटाले के आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर उन्होंने एक षड़यंत्रकारी चुप्पी साधे हुई हैं। यह चुप्पी तब है जबकि इस घोटाले की जांच रिपोर्ट सीएम सचिवालय में पिछले एक महीने से धूंल फांक रही है। गढ़वाल कमिश्नर की जांच रिपोर्ट में एक दर्जन इंजीनियरों को इस घोटाले के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। इस घोटाले की जद में लोक निर्माण विभाग, पुर्नवास निदेशालय और सिंचाई विभाग के कई इंजीनियर आ रहे हैं। शराब सीडी कांड में जिस तरह सीएम सचिवालय के अफसर मोहम्मद शाहिद कैमरे में डील करते हुए दिखाए गए हैं, उससे हरीश रावत की तो किरकिरी हो रही है, लेकिन इसके बावजूद भी सीएम सचिवालय भ्रष्टों को संरक्षण देने का अडडा बना हुआ है। सूत्र बताते हैं कि इस घोटाले की जद में आने वाले भ्रष्ट इंजीनियर व अफसर अपनी गर्दन बचाने के लिए इन दिनों सीएम सचिवालय में बैठे एक महाभ्रष्ट नौकरशाह की परिक्रमा करने में लगे हुए हैं। भ्रष्टों को बचाने में जांच रिपोर्ट की जलेबी बनाने के लिए इस नौकरशाह को महारत हासिल है। dobra

हैली स्कैमः राकेश शर्मा का नया कारनामा

WatchDog// Deharadun// kedarnath-heliवन्यजीव संरक्षण व पर्यावरणीय कानूनों को ताक पर रखकर थोक के भाव केदारघाटी में हवाई सेवा देने वाली कंपनियों को मंजूरी दिए जाने पर सवाल उठते रहे हैं। पिछले दो महीने से केदारघाटी में दिनभर मंडराने वाले हैलीकाप्टरों के शोर ने स्थानीय लोगों का जीना मुहाल कर दिया है। यहीं नहीं केदारनाथ वन्यजीव प्रभाग के हवाई क्षेत्र में दिनभर मंडरा रहे हैलीकाप्टरों से वन्यजीवों पर भी इसके दुष्प्रभाव पड़ने की बाते सामने आ रही हैं। पिछले दिनों यह तथ्य भी सामने आया है कि केदारनाथ वन प्रभाग के अधिकारियों द्वारा बिना वन्यजीव संरक्षण बोर्ड की अनुमति के हवाई सेवाएं दे रही कंपनियों पर सवाल उठाने वाली रिपोर्ट को वन विभाग के अधिकारियों द्वारा दबाये रखा गया। जिस वन विभाग के प्रमुख रहे पीसीसीएफ एसके शर्मा के खिलाफ शिकारियों को बचाने के आरोप लगे हों, उससे वन्यजीवों के संरक्षण की उम्मीद करना ही बेमानी होगी। हालांकि शर्मा अब रिटायर हो गया, लेकिन वन विभाग सवालों के घेरे में है। लेकिन हैलीकाॅप्टर कंपनियों को थोक के भाव केदारघाटी में उड़ान की अनुमति देने के पीछे की असल कहानी के सिरे को पकड़ना जरूरी है। जिस राकेश शर्मा को मुख्यमंत्री हरीश रावत ने मुख्य सचिव की कुर्सी पर हाल में ही बैठाया है, इस कहानी के पीछे भी इसी जनाब का शातिर दिमाग है। राज्य में पिछले कई सालों से नागरिक उडडयन विभाग का मुखिया के तौर पर शासन में यह भ्रष्ट राकेश शर्मा ही काम करता रहा है। अब भला जिस विभाग का मुखिया राकेश शर्मा जैसा एक नम्बरी नौकरशाह हों, वहां कायदे-कानूनों का क्या काम? कौन है जो राकेश शर्मा को पूछ सके कि भाई आपने किस आधार पर थोक के भाव हैलीकाॅप्टर सेवा देने वाली कंपनियों को मंजूरी दे दी? जब लाखों रूपया लेकर सबको भेंट चढ़ाई जानी है तो इस बात की कोई परवाह क्यों करे कि इस दमघोंटू शोर शराबे से वह चाहे मानव आबादी हो या फिर वन्यजीव, पर क्या दुष्प्रभाव हो रहा है? घोटालों की श्रृंखला में यह भी एक बड़ा घोटाला है जिसका चढ़ावा राकेश शर्मा से होते हुए नेताओं की झोली तक में गया है। इसे आप चाहें तो हैली स्कैम नाम दे सकते हैं। नागरिक उडडयन महकमें से जुड़े एक सूत्र का अनुमान है कि इस स्कैम में एनओसी देने के नाम पर करीब पांच से सात करोड़ रूपये का चढ़ावा कंपनियों ने अदा किया है। जय हो हरदा! ऐसे ही तुम भी फलते रहो और राका भी।

फारेस्ट गार्डः एक और भर्ती घोटाले की आहट

forestWatchDog// by Deepak Azad// देहरादून। राज्य में एक और घोटाले की आहट सुनाई दे रही है। वन विभाग में फाॅरेस्ट गार्ड के लिए हो रही भर्ती की विज्ञप्ति में जो अर्हताएं दी गईं हैं उससे तो यही लगता है। फाॅरेस्ट गार्ड की भर्ती परीक्षा पूरे देश के नागरिकों के लिए खुली रखी गई है, जबकि कायदे से उत्तराखंड के स्थायी निवासियों को ही फाॅरेस्ट गार्ड के पदों पर भर्ती किया जाना चाहिए, लेकिन अपने चहेतों को सेट करने के लिए भ्रष्टों ने इस भर्ती में ऐसी कोई शर्त नहीं रखी है। भर्ती के लिए राज्य के विभिन्न वन प्रभागों की ओर से जारी हो रही विज्ञप्ति के अनुसार वन विभाग में सामयिक मजूदरी करने वालों के साथ ही कुछ पदों पर खुली भर्ती का आयोजन किया जा रहा है। आरक्षित श्रेणी के पदों पर ही उत्तराखंड में जारी प्रमाण पत्रों को ही मान्य किया गया है। इसका सीधा सा मतलब है कि सामान्य पदों पर राज्य के बाहर के अभ्यर्थी को भी भर्ती किया जा सकता है। शारीरिक अर्हता के काॅलम में भी गढ़वाली, कुमाउंनी व गोरखा के अलावा असमी, मेघालय, लददाख, नेफा, नागा, मणिपुर सिक्कमी, व भूटानी को भी योग्य माना गया है। वन विभाग के सूत्रों का कहना है कि फारेस्ट अफसरों ने अपने-अपने चहेतों को फिट करने के लिए यह पूरा जाल बुना है। भ्रष्ट अफसर इस भर्ती के नाम पर एक ओर जहां सामयिक मजदूरी का फर्जी प्रमाण पत्र जारी करने के नाम पर चांदी काटने में लग गए हैं, वहीं भर्ती के नाम पर तीन से पांच लाख रूपये तक का बयाना ले रहे हैं। वन विभाग द्वारा राज्य स्तर पर परीक्षा कराने के बजाय प्रभागवार भर्ती का आयोजन करना भी घोटालेबाजों की रणनीति का ही हिस्सा माना जा रहा है।

क्या पोर्न फ्रीडम के पैरोकार अपनी बहन-बेटियों को पोर्न-स्टार के तौर पर देख पाएंगेे?

By Sushil Upadhyay//

susheelWatchDog// पिछली जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने पोर्न साइट्स को बंद ना किए जाने पर सरकार पर नाराजगी जाहिर की थी। अदालत की नाराजगी चाइल्ड पोर्नोग्राफी से जुड़ी वेबसाइटों को बंद ना किए जाने पर थी। सरकार ने इन साइटों को बंद करने का फैसला तो कर लिया है, लेकिन अब वो दबाव का सामना कर रही है। ये दबाव कुछ मामलों में संबंधित कंपनियों की ओर से है और ज्यादातर समाज के तथाकथित प्रगतिशील तबके की ओर से आ रहा है। टेलीकॉम कंपनियों ने कहा कि वो फौरन इस बैन को लागू नहीं कर सकती हैं। इन साइटों को एक-एक करके ब्लाॅक किया जाएगा। वैसे, कंपनियां लगातार दावा कर रही हैं कि व्यस्क लोग अब भी इन साइटों पर जा सकते हैं। यानि, कंपनियां सरकार को ठेंगा दिखा रही हैं और एक ऐसे धंधे को बचाने, बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं, जिसका किसी भी स्तर पर समर्थन नहीं किया जा सकता और जो भारतीय समाज की सांस्कृतिक समझ के खिलाफ है।
चिंता की बात यह है कि जिन लोगों को नई पीढ़ी अपना रोल माॅडल मान रही हैं, उनमें से कई लोग इस धंधे के खुले समर्थन में हैं। इनमें चेतन भगत से लेकर मिलिंद देवड़ा तक का नाम लिया जा सकता है। कई फिल्म स्टार भी इनके हक में हैं और इस पूरे मुद्दे को इस प्रकार प्रचारित किया जा रहा है कि सरकार लोगों की आजादी छीन रही है। अगर पोर्न देखना आजादी का मामला है तो ड्रग्स का इस्तेमाल करना भी आजादी का मामला हो सकता है! पशुओं के साथ व्याभिचार को भी इसी श्रेणी में रख सकते हैं। आखिर, ये सब कहां तक जाएगा! कोई सीमा-रेखा तय होगी या नहीं। ये बहस हर तरह से झूठी बहस है। जिस देश में करोड़ों को लोगों को दो वक्त की रोटी न मिलती हो, जहां लाखों बच्चे इलाज के बिना मर जाते हों, हजारों किसान आत्महत्या कर लेते हों, वहां पोर्न-फ्रीडम की बहस बेहद शर्मनाक स्थिति पैदा कर रही है।
कुछ साल पहले मैं उज्बेकिस्तान गया था। कुछ दोस्तों के साथ ताशकंद में एक नाइट क्लब में चला गया। शराब, ड्रग्स, स्मोकिंग, सब कुछ वहां था। कुछ देर बाद एक-एक करके लड़कियां आने लगी और फ्लोर पर डांस शुरू हो गया। डांस शुरू होने के साथ ही डांसरों ने अपने कपड़े उतारने शुरू कर दिए। कुछ ही देर में मुझे अपने भीतर घुटन महसूस होने लगी और मैं क्लब से बाहर आ गया। मेरे दिमाग में केवल एक ही ख्याल था कि ये लड़कियां अपनी खुशी से यह सब नहीं कर रही होंगी। उन्हें किसी न किसी तरह के लोभ, लालच या भय के चलते इस धंधे में उतरना पड़ा होगा। क्या मैं अपने परिवार की किसी लड़की को उस जगह पर देखने के लिए तैयार हूं ? इसी सवाल ने मुझे क्लब से बाहर आने पर मजबूर किया था। जो लोग घर के भीतर पोर्न देखने की आजादी चाहते हैं क्या वे अपनी बहन, बेटी, पत्नी या प्रेमिका को पोर्न-स्टार के तौर पर देख पाएंगे ? यदि, इस सवाल का जवाब हां में हैं तो फिर उन्हें अनुमति मिलनी चाहिए कि वे जी भर कर पोर्न देखें।
प्रगतिशीलता और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर पोर्न का समर्थन करना न केवल बेहूदा हरकत है, वरन खतरनाक प्रवृत्ति भी है। शर्म आनी चाहिए ऐसे बुद्धिजीवियों को जो इसके हक में दिख रहे हैं। ये लोग समाज के मार्गदर्शक नहीं हो सकते। हम सभी लोग कपड़ों के नीचे नंगे हैं फिर भी हम कपड़े पहनते हैं क्योंकि समाज में रहने के लिए ऐसा जरूरी है। कल कोई दावा करेगा कि नंगा रहना ही अभिव्यक्ति की आजादी है। आखिर, इन समर्थकों और अय्याशों-लौंडेबाजों में क्या अंतर है! माफ करना दोस्तों, अगर आपके घर में बच्चे हैं, खासतौर से यदि घर में बेटी है तो उन्हें ‘पोर्न-शिकार’ के तौर पर खड़ा करके देखिए। तब, शायद आपको लगेगा कि कुछ गलत हो रहा है। पोर्न देखना अभिव्यक्ति की आजादी का मामला नहीं, वरन एक मानसिक बीमारी है, जिसके इलाज की जरूरत है। इसका इलाज सरकार कर रही है तो मैं उसका समर्थन करूंगा। जिनके लिए पोर्न देखना ही अभिव्यक्ति की आजादी है, ऐसे नर-पशुओं के खिलाफ मुहिम की जरूरत है। मैं मोदी सरकार का समर्थक नहीं हूं, लेकिन मैं सरकार के इस कदम का समर्थक हूं। मुझे बुरा लगा, जब सरकार को सफाई देनी पड़ी कि वह केवल बच्चों से संबंधित साइटों को ब्लाॅक करा रही है। अच्छा यही होता कि सरकार हर तरह की पोर्न साइटों के खिलाफ कदम उठाती। वैसे, सरकार ने ऐलान किया है कि वह इस मामले में एक व्यापक नीति लेकर आ रही है। मैं, इसका भी समर्थन करूंगा और इस नीति की प्रतीक्षा भी करूंगा।
जो लोग ये कह रहे हैं कि इंटरनेट को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है और ऐसा किया भी नहीं जाना चाहिए। क्या वे खुद अपने घरों में पोर्न देखते हैं, अपने बच्चोें को पोर्न दिखाते हैं ? पोर्न देखने के बाद वे बच्चों से इसके बारे में बातें करते हैं ? क्या सरकार लिखने-पढ़ने की आजादी छीन रही है, क्या फिल्मों-अखबारों पर बैन लगा रही है क्या मनोरंजन चैनलों पर रोक लगा रही है ? यदि ऐसा कर रही है तो ये आजादी छीनने का मामला है। लेकिन, औरतों की नंगी, सेक्स करती तस्वीरों, फिल्मों को देखना कौन-सी अभिव्यक्ति है और कौन-सी आजादी है ? समाज की आधी हिस्सेदार औरतों से पूछिये की क्या वे इसके हक में हैं और क्या बच्चे भी इसके हक में हैं ? औरतों और किशोरवय तक के बच्चों को मिलाकर देखें तो दो तिहाई आबादी इसके खिलाफ है। शेष बचे एक तिहाई लोगों में भी बहुमत इसके पक्ष में नहीं होगा तो फिर वे कौन लोग हैं जिन्हें पोर्न की आजादी चाहिए और उसे पूरे समाज में दिखाने का हक भी चाहिए!
भारतीय समाज पश्चिमी समाज से भिन्न है। जो कुछ पश्चिम में सही है, उसे भारत में भी लागू किया जाए, न यह जरूरी है और न ही वांछित है। जिन्हें ‘पोर्न-फ्रीडम’ चाहिए उन्हें पश्चिम की ओर चले जाना चाहिए। मेरे मन में ऐसे लोगों के लिए कोई सम्मान नहीं है, जो इस मुद्दे पर युवा पीढ़ी को भ्रमित करने की कोशिश कर रहे हैं। कोई भी व्यक्ति इतना आजाद कभी नहीं होता कि वह राष्ट्र और समाज के मूल्यों की परिधि से बाहर चला जाए। इस रोक को तालिबानी कदम बताना बहुत बड़ा कुतर्क है। चोरी-छिपे कौन क्या करता है, इसका जिम्मेदारी न समाज ले सकता और न ही सरकार। लेकिन, खुलेतौर पर क्या करता है, इसकी जिम्मेदारी समाज की भी है और सरकार की भी।

(लेखक सुशील उपाध्याय अध्यापन से जुडे़ हैं और यह लेख उन्होंने फेसबुक पर साझा किया है)

हे! हरदा, राका की पूॅजा करो, वह तुम्हे मुक्ति देगा और जनता लतियायेगी !

WatchDog// हमारे मुख्यमंत्री हरीश रावत उर्फ हरदा की सुपुत्री अनुपमा रावत ने फेसबुक पर अपने पिता की पूॅजा-अर्चना करते हुए एक तस्वीर पोस्ट की है। यह तस्वीर तब सामने आई है जब इससे ठीक सप्ताहभर पहले शराब सीडी की दलाली को लेकर इस राज्य की जनता ने जाना कि harda गाड़-गदेरों के स्वयंभू नेता हरीश रावत के राज में कैसे-कैसे गुल पर्दे के पीछे खिलाये जा रहे हैं। इस तस्वीर के सामने आने से कुछ रोज पहले ही हरीश रावत ने राकेश शर्मा को इसलिए पदोन्नति का इनाम दे डाला कि उसकी तुलना में उन्हें कोई काबिल नौकरशाह दिखता ही नहीं। यह भी कमाल देखिए कि मुख्य सचिव बनते ही राकेश शर्मा ने सचिवालय में जो पहली बैठक बुलाई उसमें उसने परिवहन निगम की राज्य में मौजूद बेशकीमती जमीनों को बेचने की कसरत शुरू कर दी। इसलिए हे हरदा तुम जिस तरह इस राज्य में बहुगुणा के दिखाए रास्ते पर आगे बढ़ रहे हो, उससे तुम्हारी भी वही द्रुगति होनी तय है, जो बहुगुणा की हुई। तुम्हारे लिए अच्छा ये होगा कि तुम ये राधे-कृष्ण का जाप छोड़कर राका की आराधना करो, यही तुम्हें ‘मुक्ति’देगा और जनता तुम्हे लतियायेगी! राधे-राधे!

शराब सीडीः क्या मुख्यमंत्री के दत्तक पुत्र थे अशोक पांडेय

By Deepak Azad//
p3p2खुफिया कैमरों से मुख्यमत्री कार्यालय में तैनात आईएएस मोहम्मद शाहिद का स्टिंग आपरेशन कर सुर्खियां में आए अशोक पांडेय भी सवालों को घेरे में हैं। मुख्यमंत्री हरीश रावत ने जिस तरह इस सीडी के सामने आने के बाद जांच कराने से ही बचने की कोशिश की, वह उनको तो कठघरे में खड़ा करता ही है, लेकिन भाजपाई और मीडिया का एक हिस्सा पांडेय के निर्माणाधीन भवन को गिराने को लेकर जिस तरह हायतौबा मचा रहा है, वह इस पूरे प्रकरण से खड़े सवालों को नेपथ्य में धकेल रहा है। पहली बात तो यह कि इस सीडी के सामने आने से मुख्यमंत्री कार्यालय में बैठे नौकरशाह किस तहर दलाली का खेल खेल रहे हैं, सबके सामने गया। दूसरे सवालों को थोड़ी देर के लिए किनारे रख दें तो इस सीडी का यह एक उजला पक्ष है।लेकिन इस उजले पक्ष के पीछे जो भी अंधेरा है उस पर भी रोशनी डाली जानी चाहिए। पहला सवाल तो यही कि जब छह माह पहले ये स्टिंग कर दिया गया था तो इतना समय क्यों इसे बाहर आने में लगा? क्या स्टिंगबाजों ने मोहम्मद शाहिद से इस सीडी को दबाए रखने के लिए कोई सौदेबाजी की थी? अशोक पांडेय नाम के पत्रकार की 18 जून की मुख्यमंत्री के साथ सीएम आवास की जो तस्वीरें सामने आई थी, वह इस सवाल को पुख्ता करती हैं। इन तस्वीरों में एक में वे हरीश रावत को अपनी पत्रिका भेंट कर रहे हैं, तो दूसरी में वे एक पत्र में सीएम से मंजूरी लेते दिख रहे हैं। यह कैसे हो सकता है कि जो शख्स सीएम के सचिव की सीडी दबाकर बैठा हो और वही मुख्यमंत्री के साथ सीएम आवास में कुछ इस तरह खिलखिला रहा हो, मानों वह कोई पत्रकार होकर सीएम का ही दत्तक पुत्र हो! दूसरा यह कि सरकार जांच के सवाल पर लगातार इस बात का रोना रो रही है कि उसके पास जब तक फाॅरेंसिक जांच के लिए आरजिनल सीडी नहीं मिलती तब तक वह जांच को आगे नहीं बढ़ा सकती। ऐसे में क्या अशोक पांडेय की जिम्मेदारी नहीं बनती कि वे सरकार को सीडी की मूल कापी उपलब्ध कराएं। प़त्रकारिता की कौन सी आचार संहिता उन्हें ऐसा करने से रोकती है? तीसरा सवाल यह है कि एक पत्रकार को एक एनजीओ के बैनर तले अपने स्टिंग आपरेशन का खुलासा करने की जरूरत क्यों पड़ी? और पांडेय को इस सवाल का भी जवाब देना चाहिए कि क्या उत्तराखंड के एक शातिर नेता ने सीडी को सार्वजनिक करने को लेकर भाजपा हाईकमान के साथ उनकी डील कराई थी या नहीं ?

राधे मां का ग्लैमरस चेहरा बनाम धर्म का पाखंड

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WatchDog//धर्म की आड़ में क्या कुछ होता है, यह किसी से छुपा नहीं है। धर्म के नाम पर दुकान सजाने वाले वह चाहे आशाराम हों या फिर राधे जैसे पांखडी। उसकी जो तस्वीरें सामने आईं हैं वह बताती हैं कि इन जैसे पांखडी कैसे धर्म के नाम पर अयाशी कर रहे हैं और लोगों को आस्था के नाम पर बेवकूफ बना रहे हैं।

अरबों की बेशकीमती जमीनों पर भ्रष्टों की गि़द्ध दृष्टि

By Deepak Azad// raaaaaमलेथा की हरियाली को उजाड़ने की नाकाम कोशिशों के बाद अब नौकरशाहों के सुपर बाॅस बने राकेश शर्मा की गि़द्ध दृष्टि रोडवेज की बेशकीमती जमीनों पर पड गई है। रोडवेज की देहरादून समेत राज्य के विभिन्न शहरों में अरबों की जमीन खाली पड़ी है, इसमे से कुछ को तो पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर बिल्डर माफिया के हवाले कर दिया गया है, लेकिन अभी सैकडों बीघा जमीनें रोडवेज के पास है। खबर है कि राज्य परिवहन निगम बोर्ड के चेयरमैन बनाए गए मुख्य सचिव राकेश शर्मा ने करीब पचास करोड के घाटे में चल रहे निगम को उबारने के लिए खाली पड़ी अरबों की बेशकीमती जमीनों को पीपीपी मोड पर नीलाम करने की तैयारी शुरू कर दी है। राकेश शर्मा ने पहले सिडकुल की जमीनों को बिल्डर माफिया के साथ सांठगांठ कर कौडि़यों के भाव नीलाम किया और अब रोडवेज की जमीनों पर अपने सियासी आकाओं की शह पर वे नया खेल शुरू करने जा रहे हैं। पीपीपी मोड के नाम पर कैसे खेल हो रहे हैं, इसकी बानगी देहरादून में गांधी रोड पर जीएमवीएन के स्वामित्व वाले होटल द्रोणा से सटी परिवहन निगम के पुराने बस अडडे की जमीन को कौडि़यों के भाव पिछले साल जीटीएम नाम के बिल्डर को पीपीपी मोड में तीस साल की लीज पर दिए जाने से लगाया जा सकता है। देखते रहिए आने वाले दिनों में हरीश रावत का यह चहेता मुख्य सचिव क्या-क्या गुल खिलाता है?

यह तो गांधी को दुत्कारने जैसा है

chawnWatchDog///जब से यह राज्य वजूद में आया है तब से हजारों करोड़ रूपया भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों के पेट में समा गया, जांच के नाम पर भी खूब घोटाले हुए, लेकिन न तो कोई नेता धरा गया और न ही कोई भ्रष्ट नौकरशाह ही जेल की सींखचों के पीछे पहुंचा। अलबत्ता नैनीताल में एक शिक्षक को इसलिए निलंबित कर दिया गया कि शिक्षक खादी कुर्ता पहनकर डाइट में शिक्षाधिकार कानून को लेकर हो रही वर्कशाॅप में हाजिर हो गए। जिस भी अफसर ने डाइट के प्रवक्ता डाॅ जेएस चैहान को निलंबित किया होगा, उसके पास भी ऐसा करने के पीछे की वजहें तो होंगी, लेकिन वह किस स्तर का लम्पट है इसका तो इस फैसले से तो पता चलता ही है। यह तो सीधे-सीधे महात्मा गांधी की खादी को अपमानित करने जैसा है। यह सीधे तौर पर गांधी के दिए उस विचार को दुत्कारने की कोशिश है जो खादी को इस देश की जनता का पहनावा बनाने को लेकर था। अरे तुम्हारी आत्मा अगर जिन्दा है तो उन भ्रष्टों को निलंबित करो जो इस राज्य को लूट-खसोट रहे हैं।

वारणावत के इलाज में ७ करोड़ का घपला

By Jay Singh Rawat///

hillsविश्वनाथ की नगरी औरउत्तर की काशी] उत्तरकाशी के घायल वरुणावत पर्वत का उपचार तोकर नहीं पाये अलबत्ता घोटालेबाज करोड़ों की रकम अवश्य डकारगये। इस मामले की जांच लोकायुक्त द्वारा की गयी जिसमें 7 करोड़से अधिक की रकम की पुष्टि हुयी। लोकायुक्त की जांच रिपोर्टकार्यवाई के लिये तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खंडूड़ी को सौंपीगयी तो उस रिपोर्ट का आज तक कहीं पता नहीं चला। ये वहीभुवनचन्द्र खंडूड़ी हैं जो कि स्वयं को लोकायुक्त मामले का चैंपियनबनते रहे हैं। बहरहाल बरुणावत के दरकने और पौराणिक नगरीउत्तरकाशी पर भूस्खलन से उसके अस्तित्व का खतरा एक बारफिर मंडराने लगा है।

शराब सीडीः सत्ता की बदनुमा कोठियों में दलाली के सिवा होता भी क्या है?

Deepak Azad////
शराब सीडी के सामने आने से माफिया व लम्पट चेहरों से घिरे मुख्यमंत्री हरीष रावत तो नंगे हो गए, लेकिन भाजपा जिस तरह इस पूरे मामले को लेकर अतिसक्रियता दिखा रही है,वह भी कम रोचक नहीं है। शराब सीडी से जो दृश्य सामने आए उसमें ऐसा कुछ भी नहंी था जो कोई नयी बात हो। सत्ता के चरित्र और उसकी कार्यषैली को समझने-बूझने वाले जानते हैं कि पिछले डेढ दषक से इस राज्य में अधिकाषं समय सत्ता की बदनुमा कोठियों में दलाली के सिवा होता भी क्या है? हरीष रावत जिस राजनीति में पले-बढे हैं वहां यह सबकुछ सत्ता में आने पर एक रूटीन का कर्म है। इस सीडी से इतनाभर हुआ है कि जो कुछ पर्दे के पीछे होता है उसे अषोक पांडे जैसे पत्रकारिता के शातिर धंधेबाजों ने टेलीविजन की स्क्रीन पर ला खडा कर दिया। सीडी में हरीष रावत का षाहिद जो कुछ डील कर रhareshहा है, वह अपनी जगह है, लेकिन भाई इस सवाल का भी जवाब स्टिंग करने वालों को तो देना ही होगा कि पिछले छह माह से तुम कौन सी खिचड़ी पका रहे थे। न तो हरीष रावत यह स्वीकार करेंगे कि यह सब सियासत का हिस्सा है, और न ही अषोक पांडे जैसे स्टिंगबाज इस सवाल का जवाब देंगे कि वे छह महीने से दुम दबाकर क्यों बैठे हुए थे? इस पूरे खेल में भाजपा जिस तरह की राजनीति कर रही है वह और भी रोचकता से परिपूर्ण है। अगर भाजपा को अषोक पांडे इतने ही प्यारे हैं तो वे क्यों नहीं जिस सीडी को लेकर हरीष रावत मातम मना रहे हैं उसकी मूल काॅपी सरकार के हवाले कराती। दरअसल भाजपा के अजय भटट और निषंक जैसे चेहरे भी नहीं चाहते कि इस मामले की इमानदारी से जांच हो। यहा भी एक सच्चाई है कि अगर इसकी जांच इ्रमानदारी से हो गई तो षाहिद जैसों का तो जो भी होगा, अषोक पांडे और भाजपा के वे चेहरे भी बेनकाब होंगे जिनकी इस पूरे खेल को तमाषा बनाने में ज्यादा रूचि है। भाजपा को इस बात का भी तो जवाब देना चाहिए कि जब आपकी सरकार सत्ता में थी तो तब आपने पौंटी चढढा के हवाले होल सेल का कारोबार क्यों और किसलिए किया? क्या पौंटी चढढा भाजपाइयों का कुल देवता था कि वे उस जैसों पर यूं ही मेहरबान हो गए थे। यही भाजपा अगर लोकायुक्त के सवाल पर सडकों पर उतरती तो इस राज्य का कुछ भला होता, लेकिन ये ऐसा करेंगे भी तो क्यों? इस पूरी नूराकुश्ती का कुलजमा यही एक नतीजा है कि कांग्रेस और भाजपा इस राज्य के लिए सांपनाथ व नागनाथ से कम नहीं हैं और इसी का वे पूरी इमानदारी से प्रदर्शन कर रहे हैं।

भू-भक्षी डीजीपी और घोटालेबाजराकेश शर्मा से सत्ता का याराना

By Indresh Maikhuri///

मुख्य सचिव पद पर राकेश शर्मा के गद्दीनशीन होने के साथ ही,उत्तराखंड में दो सर्वोच्च प्रशासनिक पदों पर “जमीन से जुड़े” अफसर पदारूढ़ हो गए हैं.पुलिस महानिदेशक पद पर पहले से ही बी.एस.सिद्धू काबिज है,जिनके जमीन से जुड़ने की कथा,किसी अफसर की नहीं बल्कि डॉन की कथा सी है.तत्कालीन मुख्य सचिव उनके विरुद्ध शपथ पत्र दे चुके,केन्द्रीय पर्यावरण राज्य मंत्री ने राज्य सभा में उनके “जमीन से जुड़े” होने यानि जमीन कब्जाने के किस्से की पुष्टि की.पर सिद्धू पूरी ठसक के साथ डी.जी.पी. की कुर्सी पर काबिज रह कर,कानून व्यवस्था को दुरुस्त(?)करना का जिम्मा उठाये हुए हैं !
राकेश शर्मा मुख्य सचिव बना दिए गए हैं तो “जमीन से जुड़े” हुए अफसरों का यह चक्र पूरा हो गया है.उच्च न्यायालय में उनके विरुद्ध सिडकुल की बेशकीमती जमीनों(जिनपर उद्योग लगाए जाने थे) को कौड़ियों के मोल, बिल्डरों को बांटने का आरोप लगाने वाली जनहित याचिका लंबित है.तो जैसा कि मैं पूर्व में भी लिख चुका हूँ कि उक्त मामले में चूँकि जनहित याचिका उच्च न्यायालय नैनीताल ने स्वीकार कर ली है.haresh.ऐसे में क्या मुख्य सचिव राकेश शर्मा,जनहित याचिका में आरोपी बनाये गए राकेश शर्मा के खिलाफ उत्तराखंड शासन की ओर से गवाही,शपथ पत्र,दस्तावेज आदि, प्रस्तुत करेंगे?
जब राकेश शर्मा मुख्य सचिव बना ही दिए गए हैं और “जमीन से जुड़ा” मुकदमा हाई कोर्ट में उनके विरुद्ध चलना ही है,डी.जी.पी. के खिलाफ “जमीन से जुड़ा” मुकदमा चल ही रहा है.तो हाई कोर्ट से ये निवेदन है कि “जमीन से जुड़े” इन दोनों मुकदमों की तारीख, एक साथ लगाई जाए ताकि ये दोनों अफसर एक ही गाड़ी में बैठ कर सुनवाई में आ सकें.इससे इन दो अफसरों के नैनीताल आने-जाने का खर्च कुछ काम होगा.मुक़दमा चाहे आपराधिक प्रवृत्ति का है पर मुकदमें में आयेंगे-जायेंगे तो ये सरकारी खर्चे से ही.
मुख्य सचिव पद से रिटायर हुए एन.रविशंकर के बारे में कुछ कहने के लिए मैं 3-4 दिन इन्तजार करना चाहता हूँ.सुनते हैं कि उनके लिए सेवानिवृत्ति के बाद भी सरकारी गाड़ी-बंगले का इंतजाम, सरकार कर रही है.यह बंदोबस्त होगा तो कांग्रेस-भाजपा की जुगलबंदी और अफसर प्रेम फिर स्पष्ट होगा.पर 3-4 दिन इन्तजार कर लेते हैं,इस के लिए.
हरीश रावत “जमीन से जुड़े” नेता कहे जाते हैं और अब मुख्य सचिव पद पर, “जमीन से जुड़े” अफसर को उन्होंने तैनात कर दिया.पुलिस महकमें की सर्वोच्च कुर्सी पर “जमीन से जुड़ा” व्यक्ति तलाशने का कष्ट उन्हें नहीं उठाना पड़ा.यह काम उनके पूर्ववर्ती विजय बहुगुणा कर गए थे.वैसे भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते हुए उन्होंने कहा था कि बहुगुणा के अधूरे कामों को आगे बढ़ाएंगे.बहुगुणा तमाम विरोध के बावजूद,जमीन से जुड़े बी.एस.सिद्धू को पुलिस महानिदेशक बना गए और हरीश रावत ने भी सारे विरोध को दरकिनार कर दूसरे “जमीन से जुड़े” अफसर राकेश शर्मा को मुख्य सचिव बना दिया है.
जमीन से ऐसे जुड़ाव की बलिहारी है.
(फुटनोट-भू भक्षी ही तो आजकल मरने-मारने की हद तक जमीन से जुड़े हैं,बाकी तो सब जमीन छोड़-छोड़ पलायन कर रहे हैं.

उत्तराखंड सरकार की ओनिडा को बचाने की साजिश

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आपराधिक लापरवाही और नियम-कानून की अवहेलना से ओनिडा की इस फैक्ट्री मेँ आग लगी थी. लेकिन जाँच  अधिकारियों  के तबादले, सबूत कमजोर कर व आईपीसी की धारा को बदल कर अभियुक्तोँ को बचाने की कोशिश की जा रही है. 

दिल्ली के उपहार सिनेमा अग्निकांड की तरह उत्तराखंड में भी ओनिडा समूह की एक फैक्टरी में भीषण अग्निकांड हुआ. यदि मौखिक गवाही पर ध्यान ही न दिया जाय तब भी इस मामले के अभिलेखीय साक्ष्यों से यह सिद्ध होता है कि ओनिडा फैक्टरी के अग्निकुंड में बदलने के पीछे कारण कंपनी के प्रबंधकों द्वारा जानबूझ कर की जा रही लापरवाही थी. सरकारी अभिलेख बताते हैं कि  कंपनी सुरक्षा मानकों की अनदेखी कर केवल उत्पादन बढाने में लगी थी. उसके प्रबंधकों को कभी किसी मानक, नियम, सरकारी विभागों के निर्देशोँ और कानून की कोई परवाह नहीं थी. शिफ्ट समाप्त होने के बाद लगी इस आग में 12 लोग जल कर मर गऐ थे. हरिद्वार जिले की अग्निशमन दस्तों और निजी अग्निशमन गाडि़यों को आग बुझाने के काम मेँ जुटे होने पर भी फैक्टरी की आग बुझाने में 2 दिन लगे थे. अग्निकांड के बाद घटनास्थल पर राज्य के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के अलावा राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री खंडूड़ी भी पंहुचे थे. तब मुख्यमंत्री सहित सभी ने घटना के बाद दिये अपने बयानों में कंपनी प्रबंधन को दोषी बताया था और दुर्घटना के लिए जिम्मेदार लोगों को जल्द से जल्द गिरफ्तार करने का आश्वासन भी दिया था. मामले में मुकदमा भी सही धारा में दर्ज हुई. अच्छे और ईमानदार पुलिस अधिकारियों और विवेचकों के कारण जांच भी ठीक दिशा में जा रही थी. सबूतों और जांच के आधार पर यह कहा जा सकता था कि दोषियों को निश्चित सजा हो सकती थी. लेकिन हकीकत में हुआ क्या, जानिए गुलेल की की इस खोजपरक रिपोर्ट के जरिए.

एफआईआर मेँ दर्ज तथ्य

जी एल मीरचंदानी, चेयरमैन, मिर्क (ओनिडा)

अलग राज्य बनने के बाद उत्तराखंड के हरिद्वार जिले में सैकड़ों की संख्या में उद्योग लगे. रुड़की से दिल्ली की ओर लगभग 12 किमी दूर मंगलौर थाने के मंडावली गांव में लगी मिर्क इलोक्ट्रानिक्स फेस-2 में देश की प्रतिष्ठित ओनिडा समूह की इस फैक्टरी में वाशिँग मशीन और इलैक्ट्रानिक्स का अन्य सामान बनता था. 8 फरवरी 2012 की शाम 5 बजे के बाद इस फैक्टरी में भीषण अग्निकांड हुआ जिसमें जल कर 12 लोगों की मौत हुई थी.  9 फरवरी 2012 को मंगलौर थाने के नारसन खुर्द गांव के निवासी महक सिंह ने मंगलौर पुलिस को दी अपनी तहरीर में लिखा कि वह अपने भाई कृष्णपाल के साथ ओनिडा फैक्टरी मंडावली में काम करता था. इस फैक्टरी में वाशिँग मशीन और इलैक्ट्रानिक सामान तैयार होते हैं. फैक्टरी में जगह-जगह बना हुआ सामान और कच्चा माल रखा जाता था. कच्चे माल में थरमोकाल, प्लास्टिक का दाना व प्लास्टिक का सामान था. उन दिनों फैक्टरी के अंदर वैल्डिंग का काम हो रहा था. महक सिंह ने तहरीर में लिखा है कि उसने और फैक्टरी में काम करने वाले अन्य श्रमिकों ने अनेक बार जीएम सुधीर महेन्द्रा को बताया कि जगह-जगह फैले सामान के साथ वैल्डिंग किये जाने से कोई दुर्घटना हो सकती है. लेकिन सुधीर महेन्द्रा ने उनके बात को अनसुना कर दिया. उल्टे महेन्द्रा ने उन्हें कहा कि मुझे जैसे मालिक जी.एल.मीरचंदानी कहेँगे मैं वैसे ही काम करुंगा, तुम्हारे कहने से नहीं. मालिक मीरचंदानी ने मुंबई से ही वैल्डिंग करने वाले मिस्त्रियों को भी भेजा था.

8 फरवरी 2013 को ये मिस्त्री मीरचंदानी के कहे अनुसार सुधीर महेन्द्रा की देखरेख में फैक्टरी की दूसरी मंजिल में वैल्डिंग का काम करवा रहे थे. तहरीर के अनुसार लगभग शाम 5 बजे फैक्टरी की शिफ्ट खत्म होने के बाद महक सिंह और उसका भाई वेतन लेने के लिए फैक्टरी में रुके थे कि दूसरी मंजिल पर बेतरतीब रखे थर्मोकाल व प्लास्टिक के दाने पर वैल्डिंग की चिन्गारी गिरने से आग भड़क गई. तेजी से फैली इस आग और धुंऐ कारण महक सिंह के भाई कृष्णपाल सहित कुल 12 फैक्टरी कर्मी मारे गऐ और कई अन्य घायल हुए. महक सिंह ने तहरीर में लिखाया है कि फैक्टरी में आग बुझाने के उपकरण भी काफी समय से खराब थे इसलिए वे मौके पर आग बुझाने के काम नहीं आये. इन उपकरणों की खराबी के बारे में भी प्रवंधकों को कई बार बताया गया था था लेकिन उन्होँने इन्हें ठीक कराने पर ध्यान नहीं दिया.

महक सिंह ने अपनी तहरीर में फैक्टरी के मालिक, जी.एल. मीरचंदानी और जी.एम.  सुधीर महेन्द्रा पर आरोप लगाते हुए निवेदन किया कि इन दोनों के जानबूझ कर किये गये कार्य से मेरे भाई कृष्णपाल और अन्य फैक्टरी कर्मियों की मृत्यु हुई है इसलिए इन दोनों पर उचित कानूनी कार्यवाही की जाए. महक सिंह की तहरीर के आधार पर हरिद्वार जिले के मंगलौर थाने ने आई.पी.सी की धारा 304 के अँतर्गत मिर्क इलैक्ट्रानिक्स के मालिक व ओनिडा समूह के चेयरमैन जी.एल. मीरचंदानी उर्फ गुलू मीरचंदानी व सुधीर महेन्द्रा के विरूद्ध नामजद मुकदमा दर्ज किया गया.

सही दिशा मेँ जाँच  चल रही थी

घटना के समय मंगलौर में तैनात कोतवाल महेन्द्र सिंह नेगी ने इस मामले की विवेचना शुरू की. उनके मंगलौर कोतवाली से स्थानांतरण होने के बाद कुछ समय तक इंसपेक्टर पंकज गैरोला ने ओनिडा फैक्टरी अग्निकांड की जाँच की. बाद में मामले की विवेचना को तेज करने के लिये एक बार फिर वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक हरिद्वार ने तब हरिद्वार जिले की रानीपुर कोतवाली में तैनात महेन्द्र सिंह नेगी को फिर से इस मामले की विवेचना करने को दी.  केस डायरी के अनुसार महेन्द्र सिंह नेगी और पंकज गैरोला दोनों विवेचकों ने इस मामले की जांच आई.पी.सी की धारा 304 में ही की. विवेचक महेन्द्र सिंह ने मामले की विवेचना का आधार महक सिंह की तहरीर, अभिलेखीय साक्ष्यों के अलावा सी.आर.पी.सी की धारा-161 के अँतर्गत लिये अनेक गवाहों के बयानों को बनाया. इन सभी साक्ष्यों के आधार पर महेन्द्र सिंह ने अपनी विवेचना में मुकदमे के वादी महक सिंह के आरोपों को सिद्ध करने की कोशिश की थी. महेन्द्र सिंह ने अपनी विवेचना का मुख्य आधार रुड़की के अग्निशमन अधिकारी, हरिद्वार जिले के मुख्य अग्निशमन अधिकारी, स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमैंट आथोरिटि (सीडा) व सहायक विद्युत इंस्पैक्टर उत्तराखंड शासन के विभिन्न पत्रों और बयानों को बनाया.

फैक्ट्री के भीतर जले हुए सामान (वाशिंग मशीन)

अग्निशमन अधिकारी द्वितीय, रुड़की ने अग्निकांड के बाद दिनांक 12 मार्च 2012 को हरिद्वार के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को पत्र के जरिए अपनी लिखित रिपोर्ट भेजी. उस पत्र में फैक्टरी में स्प्रिंकल सिस्टम, मैनुअल फायर आलर्म, ऊंपरी मंजिल में 100 एम.एम.राइजर व लैंडिग वाल्वों को लगाने का निर्देश दिया था. फैक्टरी प्रबंधन ने इन निर्देशोँ का पालन नहीं किया. फैक्टरी को मिली अग्निशमन विभाग की अन्नापत्ति भी मार्च 2011 तक ही वैध था. उसके बाद प्रबंधन को फिर से फैक्टरी में लगे अग्निशमन यंत्रों की जांच करा कर उनकी रिफिलिंग के बाद वर्ष 2011 व 2012 के लिए अग्निशमन विभाग की अन्नापत्ति प्राप्त करनी चाहिए थी. अग्निशमन अधिकारी ने अपने पत्र में लिखा कि फैक्टरी प्रबंधन ने अग्निशमन यंत्रों की रिफिलिंग करा कर न तो उनकी जांच ही कराई और न ही अन्नापत्ति प्रमाण पत्र ही लिया.

तत्कालीन मुख्य अग्निशमन अधिकारी हरिद्वार, पी.एस.शाह ने ही मिर्क फैक्टरी में आग लगने के बाद जिले के सारे फायर स्टेशनोँ के अग्निशमन दलों के साथ फैक्टरी में आग बुझाने वाले दल का नेतृत्व किया था. शाह ने अग्निकांड के बाद 2 मार्च 2012 को अपरजिला मजिस्ट्रेट हरिद्वार को भेजी जांच आख्या में लिखा है कि\ फैक्टरी प्रबंधन केवल पैसा कमाने और उत्पादन बढाने में लगा रहा, उसके द्वारा सुरक्षा मानकों की जान-बूझ कर अवहेलना की गई थी. इस लिए अग्निकांड में 12 लोगों की जान जाने के साथ 15 करोड़ की सम्पत्ति का नुकसान भी हुआ.

सीडा के वास्तुविद- प्लानर वाई.एस.पुंडीर के 7 सितंबर 2009 के पत्र को भी मामले के विवेचक महेन्द्र सिंह ने अपनी विवेचना का आधार बनाया. इस पत्र के अनुसार मिर्क इंडस्ट्री लिमिटेड-2 के प्रवंधन को सीडा ने दुर्घटना के लगभग 3 साल पहले निर्माण के समय 19 विंदुओं का अनुपालन कर फैक्टरी परिसन का बिल्डिंग ओक्यूपैंसी प्रमाण पत्र लेने का निर्देश दिया था. बावजूद इसके, फैक्टरी प्रबंधन ने अग्निकांड के दिन तक यह प्रमाण पत्र नहीं लिया था. निर्देशोँ का अनुपालन न करने पर अग्निकांड से पांच दिन पहले भी सीडा ने फिर से मिर्क इंडस्ट्री को फिर से पत्र लिख कर इन बिंदुओं का अनुपालन कर बिल्डिंग ओक्यूपैंसी प्रमाण पत्र लेने का निर्देश दिया था. लेकिन फैक्टरी प्रबंधकों के कानों में जूँ तक नहीं रेंगी. मामले की केस डायरी के अनुसार सीडा के सहायक आर्किटैक्ट  अभिनव कुमार रावत ने अपने मौखिक बयानों में बताया कि सेन्ट्रल इंड्रस्ट्रिसल डेवलपमैंट रेगुलेशन एक्ट-2005 के अनुसार किसी भी उद्योग में उत्पादन शुरु करने से पूर्व बिल्डिंग ओक्यूपैंसी प्रमाण पत्र लेना आवश्यक शर्त है. एक्ट के अनुसार इस प्रमाण पत्र के बिना फैक्टरी में उत्पादन करना पूर्ण रुप से अवैध था. नाम न छापने की शर्त पर सीडा के देहरादून स्थित कार्यालय के एक अधिकारी बताते हैं कि ऊंचे संबधों के चलते उद्योगपति हमारे पत्रों और निर्देशोँ को फाड़कर कूड़ेदान में फेंक देते हैं. हम चाह कर भी एक्ट का पालन नहीं करा पा रहे हैं.

अन्य की तरह सहायक विद्युत निरीक्षक उत्तराखंड शासन ने दिनांक 19 सितंबर 2010 को अपने पत्र में मिर्क इंडस्ट्री लिमिटेड को भेजे पत्र में निर्देश दिया था कि  मानकों के अनुसार फैक्टरी के चारों ओर फैसिंग, कंट्रोल रुम में शाक रेटोरेशन चार्ट एवं आर्टिफिशियल रेसपिरेटर की व्यवस्था, अर्थ लीकेज सर्किट ब्रकर्स, ड्राई पाउडर टाइप/कार्बन डाई आक्साईड फायर एक्सटिंग्यूशर की व्यवस्था पत्र लिखने के एक महिने के भीतर करने के निर्देश दिये थे. मिर्क इंडस्ट्री प्रबंधन ने इन महत्वपूर्ण सुरक्षा निर्देशोँ का भी अग्निकांड होने तक पालन नहीं किया था. सहायक विद्युत निरीक्षक के पत्र के अनुसार यदि फैक्टरी प्रबंधन सुझाये गऐ सुरक्षा मानकों की अनदेखी करते हुऐ केवल उत्पादन पर ही बल देता रहा यदि सुरक्षा मानकों को ध्यान में रखा होता तो इतनी बड़ी दुर्घटना घटित नहीं होती.

प्रभारी विद्युत निरीक्षक ने अवर अभियंता विद्युत राजेन्द्र प्रसाद कोटनाला के साथ अग्निकांड के बाद 19 मार्च 2013 से लेकर चार दिन तक मिर्क इंडस्ट्री (ओनिडा फैक्टरी) का निरीक्षण किया गया. उन्होंने मामले के जांच अधिकारी महेन्द्र सिंह को अपने मौखिक बयानों (सी.आर.पी.सी-161)  में बताया कि भीषण अग्निकांड के बाद भी मीटर रुम, केबल, कंट्रोल पैनल व ट्रांसफारमर सुरक्षित पाये गए जिनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि आग्निकांड का कारण विद्युत शार्ट सर्किट नहीं था.

केस डायरी में अंकित है कि ओनिडा फैक्टरी में फायर सुरक्षा यंत्रों को लगाने वाली कंपनी के पार्टनरों में एक राज के. अरोड़ा ने भी अपने बयानों में विवेचक को बताया कि वर्ष 2010 में फायर हाइड्रैंट सिस्टम लगाने के बाद ओनिडा फैक्टरी को एक साल की वारंटी दी गई थी जिस अगले साल फिर से भरा कर नये साल की गांरटी लेनी थी. लेकिन फैक्टरी प्रबंधन ने फिर से इन सिस्टमों की जांच करा कर अगले साल के लिए वारंटी नहीं ली थी.

क्या कहा गवाह ने

फैक्ट्री से शव बाहर निकालते पुलिस के जवान

अग्निकांड के दिन सुरक्षा गार्ड के रुप में काम कर रहे मंगलौर के नंगला- सलारु निवासी आदेश ने अपने बयान में वही वाकया दोहरया जो मुकदमा दर्ज कराने वाले वादी महक सिंह ने तहरीर में लिखाया था. आदेश के बयानों के अनुसार आग वैल्डिंग से लगी थी. वे बार-बार जी.एम महेन्द्रू को वैल्डिंग न करने की सलाह दे रहे थे. परंतु महेन्द्रू का कहना कि मालिक मीरचंदानी ने मुंबई से कुशल वैल्डर भेजे हैं. साथ ही महेन्द्रू ने सलाह देने वालों को दो-टूक शब्दों में कह दिया था कि फैक्टरी मालिक मीरचंदानी और उनके अनुसार चलेगी, वे अपना काम करें. आदेश के बयानों के अनुसार फैक्टरी में जगह-जगह थर्मोकोल और प्लास्टिक दाने जैसा कच्चा माल रखा था. फैक्टरी में हर दिन 1000 से लेकर 1100 तक वाशिँग मशीनें बनती थी, उन्हें भी फैक्टरी के अंदर ही रखा जाता था जिससे आने-जाने वाले रास्ते भी अवरोधित हो रहे थे. आदेश ने अपने बयान में कहा कि आग लगभग 5 बज के 40 मिनट शाम को लगी और तुंरत अनियंत्रित हो गयी. आदेश का कहना था कि हमने आग बुझाने का प्रयत्न किया लेकिन फैक्टरी में लगे फायर सर्विस के नलों और बैरलों ने काम नहीं किया इसलिए आग अनियंत्रित हो गई और 12 लोगों की जान चली गई. वादी महक सिंह ने भी विवेचक को दिये अपने बयानों में बताया है कि अग्निकांड के दिन फैक्टरी में पर्याप्त पानी तक नहीं था इसलिए फायर सर्विस की गाडि़यों को दोबारा पानी भरने के लिए 78 किमी दूर जाना पड़ा था.

मामले की केस डायरी (सी.डी.) के अनुसार अभिलेखीय साक्ष्यों के अलावा विवेचक महेन्द्र सिंह की विवेचना तक वादी महक सिंह और गवाह आदेश के अतिरिक्त लगभग आधा दर्जन अन्य गवाहों ने भी अपने बयानों में 12 लोगों की मौत के लिए फैक्टरी प्रबंधन को जिम्मेदार ठहराया था. सी.डी के अनुसार विवेचक महेन्द्र सिंह ने इस मामले की जांच 25 अप्रैल 2012 तक की. उनके स्थानान्तरण के बाद उनके स्थान पर आये निरीक्षक पंकज गैरोला ने मामले में पहला पर्चा 14 जून 2012 को काटा.

जांच के दौरान वादी महक सिंह ने निरीक्षक पंकज गैरोला के सामन हू-बहू वही बयान दोहराये जा उसने तहरीर में लिखे थे या जांच के प्रारंभिक चरण में पहले विवेचक महेन्द्र सिंह नेगी को दिये थे. पंकज गैरोला को दिये बयानों में मुख्य अग्निशमन अधिकारी सहित कई गवाहों ने फिर से अग्निकांड में 12 लोगों की मौत के लिए ओनिडा फैक्टरी प्रबंधन को ही जिम्मेदार बताया. इस संगीन मामले के एक साल बाद भी मामले में नामजद दोनों अभियुक्तों की गिरफ्तारी नहीं हो पा रही थी. 11 मार्च 2013 के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक हरिद्वार, अरुण मोहन जोशी के पत्र के अनुसार मामले की जांच में तेजी लाने के लिए ओनिडा फैक्टरी अग्निकांड की जांच फिर से महेन्द्र सिंह नेगी को दे दी गई. जून के प्रथम सप्ताह में महेन्द्र नेगी ने अभियुक्तो की गिरफ्तारी के लिए दबिश देनी शुरु कर दी. 8 जून 2013 को विवेचक महेन्द्र सिंह नेगी ने रुड़की न्यायालय से प्रार्थना की कि ओनिडा फैक्टरी मामले के दो अभियुक्तों की गिरफ्तारी के लिए गैर जमानती वारंट जारी की जाए, जो उन्हें दो दिन बाद मिल गया.

गुलेल को अपनी जाँच में पता चला है कि मार्च के महीने मेँ फिर से जांच महेन्द्र सिंह नेगी को मिलते ही ओनिडा समूह के प्रबंधकों ओर उनके पैरवीकारों ने देहरादून से लेकर दिल्ली तक के चक्कर लगाने शुरु कर दिये थे. ओनिडा की ऊंची पैरोकारी का असर था कि प्रदेश सरकार के शीर्ष से लेकर शासन और पुलिस के बड़े अधिकारियों द्वारा इस मामले को किसी तरह निपटाने के लिए दखलंदाजी शुरु हो गई. लेकिन तब हरिद्वार में तैनात वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अरुण मोहन जोशी के सामने प्रबंधन की तिकड़मों का कुछ नहीं चल रहा था. ओनिडा अपनी लाख कोशिशोँ के बावजूद मामले की जांच कर रहे निरीक्षक महेन्द्र सिंह नेगी की कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी को प्रभावित नहीं कर पा रहे थे.

एसएसपी जोशी और विवेचक नेगी का तबादला

घटनास्थपा परा तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी

7 जून 2013 को प्रमुख सचिव गृह को लिखे अपने पत्र में राज्य अभियोजन निदेशालय के संयुक्त निदेशक (विधि) ने पहले ही पैरा में वर्णन किया है कि इस मामले में 30 मई 2013 को प्रमुख सचिव गृह द्वारा ली गई बैठक में कंपनी के प्रतिनिधि, विवेचक (महेन्द्र सिंह नेगी) और स्वयं वे उपस्थित थे. पत्र के अनुसार तब प्रमुख सचिव गृह ओमप्रकाश ने उन्हें ओनिडा फैक्टरी अग्निकांड मामले में दर्ज मुकदमे के संबध में विधिक अभिमत देने का आदेश दिया था. गुलेल को अपने सूत्रों से पता चला है कि इस मामले में लगे विवेचक और जिला स्तरीय पुलिस अधिकारियों को प्रभावित करने के लिए शासन में कई दौर की बैठकें हुई और इन अधिकारियों को तलब किया गया. बताते हैं कि यह सब राज्य सत्ता को वास्तव में चलाने वाले एक युवा नेता और उनकी चौकड़ी के संकेतों पर हो रहा था. और हुआ भी वही जो ओनिडा के प्रबंधक चाह रहे थे. 13 जून 2013 को हरिद्वार के तत्कालीन एस.एस.पी. अरुण मोहन जोशी का तबादला कर दिया गया. बताते हैं कि ओनिडा अग्निकांड की मानमाफिक जांच न कराने के अलावा कड़क छवि के जोशी के तबादले का कारण हरिद्वार में उनके द्वारा अवैध खनन पर अंकुश लगाना भी था.

ओनिडा के पैरोकारों को मालूम था कि जोशी के जाने के बाद भी महेन्द्र सिंह नेगी किसी भी हाल में उनके इशारे पर चलकर मामले को कमजोर करने में कोई मदद नहीं करेंगे. इसलिए जोशी के स्थानांतरण के अगले ही दिन यानी 14 जून 2013 को पुलिस उपमहानिरीक्षक (गढ़वाल रेंज) के आदेश पर हरिद्वार जिले में घटित इस भीषण अग्निकांड की विवेचना से महेन्द्र सिंह नेगी से हटा कर टिहरी जिले के थाना मुनि की रेती में तैनात निरीक्षक राजीव डंडरियाल को दे दी गई. उस दिन गढ़वाल रेंज के उपमहानिरीक्षक का चार्ज देहरादून के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक केवल खुराना के पास था. गुलेल को सूत्रों से यह भी पता चला कि विवेचक बदलने का आदेश जारी न करने के कारण डी.आई.जी गढ़वाल अमित सिन्हा के छुट्टी पर जाते ही केवल खुराना से विवेचक बदलने का मनमाफिक आदेश ले लिया गया. राज्य में तैनात रहे भारतीय पुलिस सेवा के एक सेवानिवृत अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि हालांकि डी.आई.जी को अपनी रेंज में किसी भी मामले की विवेचना को बदलने का अधिकार है, लेकिन डी.आई.जी इस अधिकार का प्रयोग उन मामलों में करते हैं जहां जांच की दिशा सही नहीं हो या विवेचक द्वारा अपराधियों के बचाने के प्रयास किये जा रहे हों अथवा किसी का उत्पीड़न हो रहा हो. वे बताते हैं कि एक-दो दिन के लिए पदभार पर आये अधिकारी द्वारा तो संवेदनशील मामलों मेँ विवेचक बदलने के इस तरह के निर्णय किसी भी हाल में नहीं लेने की परंपरा है. पर इस मामले में तो सब उल्टा हो रहा था.

क्या कहा गवाह ने

फैक्ट्री से शव बाहर निकालते पुलिस के जवान

अग्निकांड के दिन सुरक्षा गार्ड के रुप में काम कर रहे मंगलौर के नंगला- सलारु निवासी आदेश ने अपने बयान में वही वाकया दोहरया जो मुकदमा दर्ज कराने वाले वादी महक सिंह ने तहरीर में लिखाया था. आदेश के बयानों के अनुसार आग वैल्डिंग से लगी थी. वे बार-बार जी.एम महेन्द्रू को वैल्डिंग न करने की सलाह दे रहे थे. परंतु महेन्द्रू का कहना कि मालिक मीरचंदानी ने मुंबई से कुशल वैल्डर भेजे हैं. साथ ही महेन्द्रू ने सलाह देने वालों को दो-टूक शब्दों में कह दिया था कि फैक्टरी मालिक मीरचंदानी और उनके अनुसार चलेगी, वे अपना काम करें. आदेश के बयानों के अनुसार फैक्टरी में जगह-जगह थर्मोकोल और प्लास्टिक दाने जैसा कच्चा माल रखा था. फैक्टरी में हर दिन 1000 से लेकर 1100 तक वाशिँग मशीनें बनती थी, उन्हें भी फैक्टरी के अंदर ही रखा जाता था जिससे आने-जाने वाले रास्ते भी अवरोधित हो रहे थे. आदेश ने अपने बयान में कहा कि आग लगभग 5 बज के 40 मिनट शाम को लगी और तुंरत अनियंत्रित हो गयी. आदेश का कहना था कि हमने आग बुझाने का प्रयत्न किया लेकिन फैक्टरी में लगे फायर सर्विस के नलों और बैरलों ने काम नहीं किया इसलिए आग अनियंत्रित हो गई और 12 लोगों की जान चली गई. वादी महक सिंह ने भी विवेचक को दिये अपने बयानों में बताया है कि अग्निकांड के दिन फैक्टरी में पर्याप्त पानी तक नहीं था इसलिए फायर सर्विस की गाडि़यों को दोबारा पानी भरने के लिए 78 किमी दूर जाना पड़ा था.

मामले की केस डायरी (सी.डी.) के अनुसार अभिलेखीय साक्ष्यों के अलावा विवेचक महेन्द्र सिंह की विवेचना तक वादी महक सिंह और गवाह आदेश के अतिरिक्त लगभग आधा दर्जन अन्य गवाहों ने भी अपने बयानों में 12 लोगों की मौत के लिए फैक्टरी प्रबंधन को जिम्मेदार ठहराया था. सी.डी के अनुसार विवेचक महेन्द्र सिंह ने इस मामले की जांच 25 अप्रैल 2012 तक की. उनके स्थानान्तरण के बाद उनके स्थान पर आये निरीक्षक पंकज गैरोला ने मामले में पहला पर्चा 14 जून 2012 को काटा.

जांच के दौरान वादी महक सिंह ने निरीक्षक पंकज गैरोला के सामन हू-बहू वही बयान दोहराये जा उसने तहरीर में लिखे थे या जांच के प्रारंभिक चरण में पहले विवेचक महेन्द्र सिंह नेगी को दिये थे. पंकज गैरोला को दिये बयानों में मुख्य अग्निशमन अधिकारी सहित कई गवाहों ने फिर से अग्निकांड में 12 लोगों की मौत के लिए ओनिडा फैक्टरी प्रबंधन को ही जिम्मेदार बताया. इस संगीन मामले के एक साल बाद भी मामले में नामजद दोनों अभियुक्तों की गिरफ्तारी नहीं हो पा रही थी. 11 मार्च 2013 के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक हरिद्वार, अरुण मोहन जोशी के पत्र के अनुसार मामले की जांच में तेजी लाने के लिए ओनिडा फैक्टरी अग्निकांड की जांच फिर से महेन्द्र सिंह नेगी को दे दी गई. जून के प्रथम सप्ताह में महेन्द्र नेगी ने अभियुक्तो की गिरफ्तारी के लिए दबिश देनी शुरु कर दी. 8 जून 2013 को विवेचक महेन्द्र सिंह नेगी ने रुड़की न्यायालय से प्रार्थना की कि ओनिडा फैक्टरी मामले के दो अभियुक्तों की गिरफ्तारी के लिए गैर जमानती वारंट जारी की जाए, जो उन्हें दो दिन बाद मिल गया.

गुलेल को अपनी जाँच में पता चला है कि मार्च के महीने मेँ फिर से जांच महेन्द्र सिंह नेगी को मिलते ही ओनिडा समूह के प्रबंधकों ओर उनके पैरवीकारों ने देहरादून से लेकर दिल्ली तक के चक्कर लगाने शुरु कर दिये थे. ओनिडा की ऊंची पैरोकारी का असर था कि प्रदेश सरकार के शीर्ष से लेकर शासन और पुलिस के बड़े अधिकारियों द्वारा इस मामले को किसी तरह निपटाने के लिए दखलंदाजी शुरु हो गई. लेकिन तब हरिद्वार में तैनात वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अरुण मोहन जोशी के सामने प्रबंधन की तिकड़मों का कुछ नहीं चल रहा था. ओनिडा अपनी लाख कोशिशोँ के बावजूद मामले की जांच कर रहे निरीक्षक महेन्द्र सिंह नेगी की कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी को प्रभावित नहीं कर पा रहे थे.

एसएसपी जोशी और विवेचक नेगी का तबादला

घटनास्थपा परा तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी

7 जून 2013 को प्रमुख सचिव गृह को लिखे अपने पत्र में राज्य अभियोजन निदेशालय के संयुक्त निदेशक (विधि) ने पहले ही पैरा में वर्णन किया है कि इस मामले में 30 मई 2013 को प्रमुख सचिव गृह द्वारा ली गई बैठक में कंपनी के प्रतिनिधि, विवेचक (महेन्द्र सिंह नेगी) और स्वयं वे उपस्थित थे. पत्र के अनुसार तब प्रमुख सचिव गृह ओमप्रकाश ने उन्हें ओनिडा फैक्टरी अग्निकांड मामले में दर्ज मुकदमे के संबध में विधिक अभिमत देने का आदेश दिया था. गुलेल को अपने सूत्रों से पता चला है कि इस मामले में लगे विवेचक और जिला स्तरीय पुलिस अधिकारियों को प्रभावित करने के लिए शासन में कई दौर की बैठकें हुई और इन अधिकारियों को तलब किया गया. बताते हैं कि यह सब राज्य सत्ता को वास्तव में चलाने वाले एक युवा नेता और उनकी चौकड़ी के संकेतों पर हो रहा था. और हुआ भी वही जो ओनिडा के प्रबंधक चाह रहे थे. 13 जून 2013 को हरिद्वार के तत्कालीन एस.एस.पी. अरुण मोहन जोशी का तबादला कर दिया गया. बताते हैं कि ओनिडा अग्निकांड की मानमाफिक जांच न कराने के अलावा कड़क छवि के जोशी के तबादले का कारण हरिद्वार में उनके द्वारा अवैध खनन पर अंकुश लगाना भी था.

ओनिडा के पैरोकारों को मालूम था कि जोशी के जाने के बाद भी महेन्द्र सिंह नेगी किसी भी हाल में उनके इशारे पर चलकर मामले को कमजोर करने में कोई मदद नहीं करेंगे. इसलिए जोशी के स्थानांतरण के अगले ही दिन यानी 14 जून 2013 को पुलिस उपमहानिरीक्षक (गढ़वाल रेंज) के आदेश पर हरिद्वार जिले में घटित इस भीषण अग्निकांड की विवेचना से महेन्द्र सिंह नेगी से हटा कर टिहरी जिले के थाना मुनि की रेती में तैनात निरीक्षक राजीव डंडरियाल को दे दी गई. उस दिन गढ़वाल रेंज के उपमहानिरीक्षक का चार्ज देहरादून के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक केवल खुराना के पास था. गुलेल को सूत्रों से यह भी पता चला कि विवेचक बदलने का आदेश जारी न करने के कारण डी.आई.जी गढ़वाल अमित सिन्हा के छुट्टी पर जाते ही केवल खुराना से विवेचक बदलने का मनमाफिक आदेश ले लिया गया. राज्य में तैनात रहे भारतीय पुलिस सेवा के एक सेवानिवृत अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि हालांकि डी.आई.जी को अपनी रेंज में किसी भी मामले की विवेचना को बदलने का अधिकार है, लेकिन डी.आई.जी इस अधिकार का प्रयोग उन मामलों में करते हैं जहां जांच की दिशा सही नहीं हो या विवेचक द्वारा अपराधियों के बचाने के प्रयास किये जा रहे हों अथवा किसी का उत्पीड़न हो रहा हो. वे बताते हैं कि एक-दो दिन के लिए पदभार पर आये अधिकारी द्वारा तो संवेदनशील मामलों मेँ विवेचक बदलने के इस तरह के निर्णय किसी भी हाल में नहीं लेने की परंपरा है. पर इस मामले में तो सब उल्टा हो रहा था.

मोदी का भगवा नवउदारवाद

नरेंद्र दामोदरदास मोदी 26 मई 2014 को तब भारतीय लोकतंत्र की असाधारण क्षमता के प्रतीक बने, जब उन्होंने दिखाया कि कैसे एक मामूली पृष्ठभूमि से आने वाला साधारण-सा आदमी एक ऊंचे उठते देश का प्रधानमंत्री बन सकता है। हालांकि उन्हें इस ऊंचाई पर उठाने की पूरी कवायद दुनिया की ऐसी ही सबसे महंगी कवायदों में से एक थी (इस पर अंदाजन 10,000 करोड़ रुपए खर्च हुए), लेकिन इस तथ्य के बावजूद उनके हिमायतियों ने इसे भारतीय लोकतंत्र के चमत्कार के रूप में पेश किया। इस पूरी प्रक्रिया में मोदी ने अंधाधुंध रफ्तार से 300,000 लाख किमी दूरी तय की और 5,800 जगहों पर रैलियों को संबोधित किया। इसमें वो 1350 जगहें भी शामिल हैं, जहां 3डी तकनीक से मोदी की 10 फुट ऊंची होलोग्राफिक छवि का इस्तेमाल करते हुए एक ही वक्त में 100 रैलियों को संबोधित किया गया। सभी संभव माध्यमों के जरिए विज्ञापनों का ऐसा तूफानी हमला किया गया कि बच्चे भी ‘अबकी बार मोदी सरकार’ और ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ गाते फिर रहे थे। बेशक इसमें आरएसएस के लाखों कार्यकर्ताओं की फौज का भी समर्थन था, जिसने यह दिखाया कि अगर जरूरत पड़ी तो उनकी राह को आसान बनाने के लिए उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, असम के कोकराझार और ऐसी ही जगहों की धरती खून से लाल की जा सकती है। मतदाताओं को लुभाने की ऐसी गहन प्रक्रिया का जोड़ विकसित लोकतंत्रों तक में मिलना मुश्किल है।

यह सब बहुत बड़े पैमाने पर किया गया, और अगर इसके पैमाने को छोड़ दें तो अपने आप में इसमें कुछ भी नया नहीं था। लेकिन यह पैमाना ही था, जिसने सबसे ज्यादा असर डाला। असल में ये चुनाव अनेक तरह से अलग थे। चुनाव के दौरान की प्रक्रिया को अलग कर दें तब भी इसके जो नतीजे आए, उनका पैमाना ही स्तब्ध कर देने वाला था। सबसे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित करने वाली हमारी अनोखी चुनावी व्यवस्था के कारण, जो अपने बुनियादी सैद्धांतिक स्तर पर भी जनता के प्रतिनिधित्व का मखौल उड़ाती है, भाजपा को 282 सीटें मिलीं। यह 31 फीसदी वोटों के साथ कुल सीटों का 53 फीसदी है, जो कि बहुमत से खासा ऊपर है। इसने गठबंधन के दौर को विदाई दे दी, जिसके बारे में कइयों का मानना था कि यह बना रहेगा। सहयोगी दलों को मिलाकर राजग का आंकड़ा 334 तक चला गया,और असल में लोकसभा में वामपंथी दलों को छोड़कर भाजपा का कोई विपक्षी नहीं बचा है। नीतिगत मामलों में कांग्रेस असल में इसकी एक घटिया प्रतिलिपि ही रही है। राज्यसभा में भाजपा का बहुमत नहीं है, लेकिन वहां ऐसे रीढ़विहीन दल हैं, जो भाजपा को बचाने के लिए बड़ी आसानी से तैयार हो जाएंगे, जैसा कि हाल में एक ट्राई अध्यादेश के मामले में हुआ। इस तरह भाजपा एक ऐसी स्थिति में है, जिसमें वह जो चाहे वह कर सकती है। फासीवाद के जिस भूत की आशंका बहुतों द्वारा जताई जा रही थी, वह एक सच्ची संभावना बन कर सामने आ गई है। सवाल है कि क्या भारत एक फासीवादी राज्य में तब्दील हो जाएगा? क्या यह एक हिंदू राज्य बन जाएगा? क्या यह धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए एक कैदखाना बन जाएगा?

पूंजी का तर्क

मोदी ने अपना चुनावी अभियान राष्ट्रपति प्रणाली वाली शैली में चलाया था, जिसमें वह अकेले अपने बारे में शेखी बघारते हुए अहंकार से भरी बातें करते फिर रहे थे। लेकिन चुनावों के बाद उन्होंने खुद को एक बदले हुए व्यक्ति के रूप में पेश किया। पार्टी के संसदीय दल के नेता के रूप में अपनी पुष्टि के बाद जब वह संसद भवन में दाखिल हो रहे थे, तो इसे लोकतंत्र का मंदिर बताते हुए इसकी सीढ़ियों पर माथा टेक कर प्रणाम किया। फिर पवित्र दस्तावेज के रूप में संविधान की शपथ लेने के बाद उन्होंने ऐलान किया कि उनकी सरकार गरीबों, नौजवानों और महिलाओं के लिए समर्पित होगी। उन्होंने सभी पड़ोसी देशों के प्रमुखों को निमंत्रण देते हुए और भी वाहवाही हासिल की। अपनी पहली विदेश यात्रा पर भूटान जाकर उन्होंने संकेत दिए कि वे पड़ोसियों के साथ दोस्ताना रिश्तों को अहम मानते हैं। ब्राजील के फोर्तालेसा में आयोजित छठे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में100 अरब डॉलर की जमा पूंजी वाले विकास बैंक की स्थापना में उनका भी योगदान था। यह बैंक ब्रिक्स के भीतर व्यापार और विकास को बढ़ावा देगा। देश के भीतर उन्होंने नौकरशाही को अनुशासन में रखने के लिए अनेक कदम उठाए हैं लेकिन साथ ही उन्होंने नौकरशाहों से कहा है कि वे मंत्रियों और सांसदों की राजनीतिक दखलंदाजी का विरोध करें। कल का फेकू अब चुपचाप,पूरी गंभीरता से अपना काम कर रहा है। उन्होंने एक महीना बीतने के बाद अपना मुंह खोला और दावा किया कि उनकी सरकार की उपलब्धियां कांग्रेस के 67 वर्षों के शासनकाल से बेहतर थीं। हालांकि उनके पक्ष में ऐसी अनेक बातें कही जा सकती हैं, जिन्होंने लोगों को प्रभावित किया है और वे सोचने लगे हैं कि मोदी आरएसएस या भाजपा से स्वतंत्र होकर काम कर सकते हैं और इस तरह वह जनता के लिए अच्छा काम भी कर सकते हैं।

असल में ये और दूसरे अनेक कदम पूंजीपतियों के लिए व्यापार और निवेश के मौके पैदा करने के मकसद से उठाए गए थे, जिन्होंने मोदी में काफी निवेश किया है और उनसे उम्मीदें लगा रखी हैं। सुधारों को हमेशा ही जनता के नाम पर लागू किया जाता है और उसे जायज ठहराने के लिए ‘रिस कर नीचे आनेÓ (ट्रिकल डाउन) की संदिग्ध दलील पेश की जाती है। लेकिन असल में उनका मकसद पूंजी के हितों को पूरा करना होता है जिसे वे मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था के जरिए आगे बढ़ाते हैं। इसलिए ये सुधार मेहनतकश विरोधी होते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का निजीकरण, सार्वजनिक सेवाओं का व्यावसायीकरण, प्राकृतिक संसाधनों को निजी व्यक्तियों के हवाले करना, कीमतें तय करने के लिए बाजार के तंत्र पर भरोसा करना, करों तथा शुल्कों की बाधाएं हटाकर व्यापार को प्रोत्साहित करना, नियामक नियंत्रण को वापस ले लेना, राज्य को आर्थिक गतिविधियां संचालित करने में अक्षम बनाने के लिए राजकोषीय कदम उठाना और इस तरह निजी हितों को बढ़ावा देना, निजी क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाने के लिए कर तथा श्रम सुधार अपनाना और विनियमन को लागू करना नवउदारवाद के लक्षण हैं। लोगों की ‘अच्छे दिनों’ की खुमारी तब झटके से टूटी जब कुछ ही दिनों के भीतर रेल बजट आया, जिसमें रेलवे के यात्री किराए तथा माल भाड़े में क्रमश: 14.2 तथा 6.5 फीसदी की भारी बढ़ोतरी की गई, जिससे पहले से ही महंगाई के बोझ से दबे लोगों पर और ज्यादा बोझ बढ़ेगा। नरेंद्र मोदी इस साल सितंबर में अपनी अमेरिका यात्रा से पहले भारत-अमेरिका परमाणु करार को लागू करना चाहते हैं, जिसके संकेत देते हुए अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) को भारत के असैनिक परमाणु कार्यक्रम की निगरानी के लिए और अधिक पहुंच मुहैया कराई गई है। यह कदम हो या फिर तीन महीनों में खाद्य सुरक्षा विधेयक को स्थगित करने की बात हो या रेलवे में सौ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के दरवाजे खोलना हो या फिर विदेशी निवेश को लुभाने के लिए पेट्रोलियम सेक्टर में भारी नीतिगत बदलाव हो, ये सारी बातें ठेठ नवउदारवाद को ही साबित करती हैं। हालांकि इन दक्षिणपंथी नीतियों की शुरुआत कांग्रेस ने की थी और उसी ने इन्हें लागू भी किया था, लेकिन इस मामले में भाजपा के साथ उसकी स्वाभाविक संगत है। यह इन नीतियों को लागू करने में भाजपा द्वारा दिखाई जा रही तेजी से साफ जाहिर है।

फिर हिंदुत्व किधर है?

मोदी ने विकास के अपने इरादे पर जोर देने के लिए सोच-समझकर ही हिंदुत्व पर चुप्पी साध रखी है। लेकिन एक पक्के संघी के बतौर, जिसका प्रमाण खुद संघ के मुखिया मोहन भागवत ने दिया है, वह भारत को हिंदू राष्ट्र में बदलने के अपने हिंदुत्ववादी एजेंडे को कभी भूल नहीं सकते। हालांकि यह एजेंडा कई तरीकों से अमल में लाया जा सकता है। जैसे कि राम जन्मभूमि आंदोलन या गोधरा के बाद मुसलमानों का कत्लेआम सीधे चुनावी फायदों के लिए लोगों को बांटने के घिनौने तरीके थे, वहीं इनसे कुछ नरम तरीके भी हो सकते हैं जिनके जरिए भीतर ही भीतर संस्थानों को हिंदुत्व के अड्डों में बदला जा सकता है। हिंदुत्व का पहला या सख्त रास्ता शांति को भंग करता है और पूंजी ऐसा पसंद नहीं करेगी। फिर इतना भारी जनाधार हासिल होने की वजह से वह सचमुच जरूरी भी नहीं है। इसलिए मोदी ऐसे सांप्रदायिक झगड़ों के पक्ष में नहीं होंगे, जिनसे निवेश का माहौल बिगड़ जाए। हालांकि सौ सिरों वाला संघ परिवार अपनी जीत से अंधा हो चुका है और वह जमीनी स्तर पर ऐसी समस्याएं खड़ी कर सकता है, जैसा कि पुणे में मुस्लिम नौजवान मोहसिन शेख की हत्या के मामले में दिखा है। इसके अलावा हिंदुत्ववादी गुटों द्वारा अनेक जगहों पर सांप्रदायिक गुंडागर्दी दिखाई गई है। ऐसी हरकतों को काबू में करना मोदी के लिए मुश्किल हो सकता है। लेकिन वह निश्चित रूप से हिंदुत्व का नरम तरीका अपनाएंगे जिसमें वह व्यवस्थित रूप से संस्थानों का भगवाकरण करेंगे। गुजरात में उन्होंने ऐसा ही किया है। इसकी एक बहुत साफ मिसाल येल्लाप्रगदा सुदर्शन राव की चुपचाप की गई नियुक्ति है, जो काकतिया विश्वविद्यालय में इतिहास तथा पर्यटन प्रबंधन के एक अनजान से प्रोफेसर हैं। उन्हें भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का नया अध्यक्ष बनाया गया है। मानव संसाधन विकास मंत्री शायद यह नहीं सोचतीं कि इस पद के लिए योग्यता मायने रखती है, खुद उनकी योग्यता तथा झूठे शपथ पत्र पर भी आपत्ति उठाई गई है। नए नए अध्यक्ष बने ये माननीय इतना मूर्खतापूर्ण दुस्साहस रखते हैं कि उन्होंने ‘भारतीय जाति व्यवस्थाÓ की अच्छाइयों को खोज लिया और और यह घोषणा भी कर डाली कि उनका एजेंडा महाभारत की घटनाओं की तारीख निश्चित करने के लिए शोध कराने का है।

आम अवधारणा के उलट, असल में नवउदारवाद और विचाराधारात्मक हिंदुत्व में कोई आपसी विरोध नहीं है। व्यक्तिवाद और सामाजिक डार्विनवादी रवैए के बारे में इन दोनों केविचार मेल खाते हैं। इसी तरह हिंदुत्व और फासीवाद के बीच समानता भी इतनी जगजाहिर है कि उसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं। फासीवाद मूलत: राज्य की तानाशाही, कानून से परे रूढ़िवादी समूहों की धौंस, राष्ट्रीय अंधभक्ति, एक बड़े कद के नेता के सामने व्यक्तियों और समूहों का समर्पण और सामाजिक जीवन को डार्विनवादी नजरिए से देखने की हिमायत करता है। हिंदुत्व के झंडाबरदारों का भी यही चरित्र है। इसे समझने के लिए आपको बस गोलवलकर को देखने की जरूरत है, जो हिंदुत्व की विचारधारा के पूज्य सिद्धांतकार हैं। इस तरह अपने सारतत्व में हिंदुत्व, नवउदारवाद और फासीवाद एक दूसरे के पूरक हैं। और यह पूरकता अपने भव्य रूप में नरेंद्र मोदी में अभिव्यक्त होती है। उल्लेखनीय समाजशास्त्री आशीष नंदी ने उन्हें तब ‘एक फासिस्ट का श्रेष्ठ और ठेठ नमूनाÓ कहा था जब मोदी की कोई हैसियत नहीं थी। चाहे वह सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हुए केरल, गुजरात, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, महाराष्ट्र, त्रिपुरा और उत्तर प्रदेश के राज्यपालों से इस्तीफा देने को कहना हो या फिर जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे के संबंध में अनुच्छेद 370 को खत्म करने का संकेत देना हो, या समान नागरिक संहिता अपनाए जाने की बात हो या फिर भारत के दूरसंचार नियमन प्राधिकार अधिनियम 1997 को बदलने के लिए अध्यादेश की घोषणा हो, जिसमें नियामक संस्था के प्रमुख की ‘भविष्य में किसी केंद्र या राज्य सरकार में नियुक्तिÓ पर पाबंदी थी,ताकि नृपेंद्र मिश्र को प्रधान मंत्री के प्रधान सचिव के बतौर नियुक्त की जा सके, इन सबमें नरेंद्र मोदी की फासीवादी निशानियों को देखना मुश्किल नहीं है। उन्होंने दल के भीतर किसी संभावित विरोध को खत्म करने के लिए अपने आदमी अमित शाह को दल के अध्यक्ष के रूप में बैठा दिया है और राजनीतिक वर्ग को दरकिनार करने के लिए नौकरशाही के साथ सीधा संपर्क बना रहे हैं।

भगवा नवउदारवाद

भगवा नवउदारवाद नवउदारवादी आर्थिक सुधारों की दिशा में एक आक्रामक अभियान है। इसमें साथ ही साथ सामाजिक-सांस्कृतिक तरीकों से वर्चस्ववादी हिंदुत्व का प्रसार करते हुए अपने राजनीतिक जनाधार को और एकजुट तथा मजबूत बनाए रखा जाता है। इसमें निजीकरण, उदारीकरण, विनियमन तथा पूंजी को सारी सुविधाएं मुहैया करना शामिल है, जिसमें पड़ोसी देशों के साथ बेहतर रिश्ते बनाया जाना भी शामिल है ताकि व्यावसायिक माहौल बनाया सके और अंतरराष्ट्रीय व्यापार का विस्तार हो सके। इन सबको देखते हुए भाजपा का कट्टर राष्ट्रवाद भी बहुत सोच-समझ कर चलाया जा रहा है। विवादास्पद वैदिक प्रकरण को भी इसी रणनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। वेद प्रताप वैदिक चाहे तकनीकी रूप से आरएसएस से जुड़े हों या नहीं, उन्हें भाजपा ने हाफिज सईद से अनधिकारिक-अनौपचारिक बातचीत के लिए नियुक्त किया था, जिसे छुपाने के लिए वह कश्मीर पर बयानबाजी कर रही थी। भगवा नवउदारवाद का मतलब यह भी होगा कि श्रम कानूनों को फिर से लिखा जाएगा, दूसरे कानूनों का सरलीकरण किया जाएगा (जो शुरू भी हो चुका है) तथा संविधान का इस तरह संशोधन किया जाएगा कि यह भारत को व्यवसाय के और अधिक अनुकूल बना सके। इसका मतलब है कि भूमि अधिग्रहण को और आसान बना दिया जाएगा, देश के प्राकृतिक संसाधनों को पूंजी की लूट के लिए खोल दिया जाएगा। इसका मतलब होगा कि नौकरशाही की सभी महत्वपूर्ण जगहों पर हिंदुत्ववादी लोगों को बैठाया जाएगा और शैक्षिक तथा दूसरे शोध संस्थानों का भगवाकरण किया जाएगा। किसी असहमति को पनपने से पहले ही उसे कुचलने के लिए आंतरिक सुरक्षा तंत्र को मजबूत किया जाएगा और किसी भी प्रतिरोध को रत्ती भर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यह सब अकेले सर्वोच्च नेता नरेंद्र मोदी की कमान में होना है।

अगर यह योजना नाकाम रही, तो फिर उग्र हिंदुत्व की राह अपनाई जाएगी।

दारूबाज नेताओं को तो चैराहे पर जुतियाने का मन करता है,,,,ये सुसरे केरल से क्यों नहीं कुछ सीखना चाहते,,,

दवा के साथ दारु की जोड़ी जाने किसने बनायी होगी.लेकिन लगता है कि हमारी सरकार ने, दारु को ही दवा का स्थानापन्न मान लिया है.पिछले दिनों श्रीनगर(गढ़वाल) स्थित मेडिकल कॉलेज की अव्यवस्थाओं को लेकर मुख्यमंत्री से मिले प्रतिनिधिमंडल के सामने मुख्यमंत्री हरीश रावत ने रोना रोया-डाक्टर तो पहाड़ चढ़ना ही नहीं चाहते हैं.दवा देने वाला भेजना हरीश रावत की सरकार के बूते का नहीं है.इसलिए विकल्प के तौर पर उन्होंने दारु पहुंचाने का इंतजाम किया है.दवा और दवा देने वाला पहुंचे,ना पहुंचे इसके लिए सरकारज्यादा चिंतित नहीं है.लेकिन दारु पहुँचने में कोई खलल नहीं पड़ना चाहिए,इसके लिए सरकार बेहद मुस्तैद है,व्यवस्था चाक-चौबंद है.श्रीनगर और रुद्रप्रयाग के बीच खांकरा में जब महिलाओं ने सरकारी दारु की दूकान नहीं खुलने दी तो रात-दिन पहाड़ की चिंता में दुबली हुई जा रही हरीश रावत की सरकार ने मोबाईल वैन से दारु बाँटने का बंदोबस्त किया है.दारु बांटने में किसी तरह की ढील सरकार बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है.आखिर गम भुलाने से लेकर दवा के साथ जुगलबंदी तक,शादी से लेकर चुनाव तक दारु से आवश्यक सेवा कोई दूसरी है भला !!

ऐसा नहीं है कि प्रदेश में दारु से ऐसा प्रेम हरीश रावत जी को ही है,भाजपा वाले भी इस प्रेम में पीछे नहीं हैं.2007 में मुख्यमंत्री बनते ही भुवन चन्द्र खंडूड़ी जी ने जो सबसे पहले निर्णय लिए,उसमें दारु की दूकान के बंद होने का समय रात 8 बजे से बढाकर 9 बजे करना प्रमुख था.एक दारु की दूकान वाला श्रीनगर तहसील में इस निर्णय की तारीफ़ करते हुए कह रहा था-क्या बताएं साहब,पब्लिक का बहुत प्रेशर था,इसलिए यह जरुरी था. हाँ ,रोटी, रोजगार,शिक्षा,अस्पताल की मांगों से ज्यादा प्रेशर होता होगा पब्लिक का दारु की दूकान के लिए ना !!!!!!
(बाकी पौंटी चड्डा का बिजनिस पार्टनर और हत्यारोपी सुखदेव सिंह नामधारी भाजपा की सरकार में राज्य अल्पसंखक आयोग का अध्यक्ष था और इस हत्याकांड के समय पर मौकाए वारदात पर मौजूद रहने की खुसरपुसर नुमा चर्चाएँ बटोरने वाले राकेश शर्मा कांग्रेस-भाजपा दोने के ही आँखों के तारे अफसर हैं,ये उत्तराखंड में सब जानते हैं,इस बात को दोहराना क्या !)

दवा के साथ दारु की जोड़ी जाने किसने बनायी होगी.लेकिन लगता है कि हमारी सरकार ने, दारु को ही दवा का स्थानापन्न मान लिया है.पिछले दिनों श्रीनगर(गढ़वाल) स्थित मेडिकल कॉलेज की अव्यवस्थाओं को लेकर मुख्यमंत्री से मिले प्रतिनिधिमंडल के सामने मुख्यमंत्री हरीश रावत ने रोना रोया-डाक्टर तो पहाड़ चढ़ना ही नहीं चाहते हैं.दवा देने वाला भेजना हरीश रावत की सरकार के बूते का नहीं है.इसलिए विकल्प के तौर पर उन्होंने दारु पहुंचाने का इंतजाम किया है.दवा और दवा देने वाला पहुंचे,ना पहुंचे इसके लिए सरकार ज्यादा चिंतित नहीं है.लेकिन दारु पहुँचने में कोई खलल नहीं पड़ना चाहिए,इसके लिए सरकार बेहद मुस्तैद है,व्यवस्था चाक-चौबंद है.श्रीनगर और रुद्रप्रयाग के बीच खांकरा में जब महिलाओं ने सरकारी दारु की दूकान नहीं खुलने दी तो रात-दिन पहाड़ की चिंता में दुबली हुई जा रही हरीश रावत की सरकार ने मोबाईल वैन से दारु बाँटने का बंदोबस्त किया है.दारु बांटने में किसी तरह की ढील सरकार बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है.आखिर गम भुलाने से लेकर दवा के साथ जुगलबंदी तक,शादी से लेकर चुनाव तक दारु से आवश्यक सेवा कोई दूसरी है भला !!
ऐसा नहीं है कि प्रदेश में दारु से ऐसा प्रेम हरीश रावत जी को ही है,भाजपा वाले भी इस प्रेम में पीछे नहीं हैं.2007 में मुख्यमंत्री बनते ही भुवन चन्द्र खंडूड़ी जी ने जो सबसे पहले निर्णय लिए,उसमें दारु की दूकान के बंद होने का समय रात 8 बजे से बढाकर 9 बजे करना प्रमुख था.एक दारु की दूकान वाला श्रीनगर तहसील में इस निर्णय की तारीफ़ करते हुए कह रहा था-क्या बताएं साहब,पब्लिक का बहुत प्रेशर था,इसलिए यह जरुरी था. हाँ ,रोटी, रोजगार,शिक्षा,अस्पताल की मांगों से ज्यादा प्रेशर होता होगा पब्लिक का दारु की दूकान के लिए ना !!!!!!
(बाकी पौंटी चड्डा का बिजनिस पार्टनर और हत्यारोपी  सुखदेव सिंह नामधारी भाजपा की सरकार में राज्य अल्पसंखक आयोग का अध्यक्ष था और इस हत्याकांड के समय पर मौकाए वारदात पर मौजूद रहने की खुसरपुसर नुमा चर्चाएँ बटोरने वाले राकेश शर्मा कांग्रेस-भाजपा दोने के ही आँखों के तारे अफसर हैं,ये उत्तराखंड में सब जानते हैं,इस बात को दोहराना क्या !)
 

विजुअल मीडिया जिस तेजी से उभरी थी उसी तेजी से एक्सपोज भी हो गई

 

 विजुअल मीडिया जिस तेजी से उभरी थी उसी तेजी से एक्सपोज भी हो गई। इसके विपरीत प्रिंट का डंका अभी भी बज रहा है। आज विजुअल में कौन सा ऐसा न्यूज चैनल है जिसे रत्ती भर भी निष्पक्ष कहा जा सकता है? या तो विजुअल मीडिया में मोदी की चाटुकारिता हो रही है या सोनिया एंड कंपनी की। दोनों तरह की चापलूसी में होड़ मची है और तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर परोसा जा रहा है। अब देखिए कितनी तेजी से वे चेहरे बदल दिए गए जो डिबेट में निष्पक्ष रुख अख्तयार किया करते थे।

अब वही चेहरे हर चैनल पर दीखते हैं जिनकी सिफारिश या तो अशोक रोड से की जाती है अथवा अकबर रोड से। मजे की बात कि ये दोनों शासक (अशोक और अकबर) सेकुलर थे और सिफारिशें हद दरजे के कम्युनल ‘ए’ और कम्युनल ‘बी’ लोगों की आ रही है। अब हम सरीखे निष्पक्ष और निर्भय लोग बाहर हैं। मगर अखबारों में ऐसा नहीं है। वहां एक संतुलित माहौल रहता है। इसकी वजह है कि अखबारों ने तो 1975 से 1977 का वह दौर देखा है जब ‘इंडिया’ का मतलब ‘इंदिरा’ हो गया था। तब भी वे निष्पक्ष भाव से खड़े रहे तो अब क्या! यूं भी जल्द ही विजुअल मीडिया में सोशल मीडिया अव्वल हो जाएगी और न्यूज चैनल चौबीसो घंटे बस ‘कामेडी विद कपिल’ या ‘चर्च में उस गोरे का भूत’ दिखाया करेंगे।

वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ला के फेसबुक वॉल से

हिटलर के नक्शे-कदम पर संघ परिवार का ‘लव जेहाद’

 

By Arun Maheswari

अगर आपने हिटलर की आत्मकथा ‘माईन काम्फ़  ’ को पढ़ा हो तो इस बात को पकड़ने में शायद आपको एक क्षण भी नहीं लगेगा सांप्रदायिक नफरत फैलाने के उद्देश्य से भारत में अभी चल रहे ‘लव जेहाद’ नामक अनोखे अभियान का मूल स्रोत क्या है। हिटलर यहूदियों के बारे में यही कहा करता था कि ‘‘ये गंदे और कुटिल लोग मासूम ईसाई लड़कियों को बहला-फुसला कर, उनको अपने प्रेम के जाल में फंसा कर उनका खून गंदा किया करते हैं।’’

यहां हम हिटलर के शासन (थर्ड राइख) के दुनिया के सबसे प्रामाणिक इतिहासकार विलियम एल. शिरर की पुस्तक ‘The Rise and Fall of Third Reich’ के एक छोटे से अंश को रख रहे हैं, जिसमें शिरर ने हिटलर की ऐसी ही घृणित बातों को उद्धृत करते हुए उनको विश्लेषित किया है। शायद, इसके बाद भारत में संघ परिवार के लोगों के ‘लव जेहाद’ अभियान की सचाई के बारे में कहने के लिये और कुछ नहीं रह जायेगा। शिरर अपनी इस पुस्तक के पहले अध्याय ‘Birth of the Third Reich’ के अंतिम हिस्से में लिखते हैं :

‘‘ हिटलर एक दिन वियेना शहर के भीतरी हिस्से में घूमने के अपने अनुभव को याद करते हुए कहता है, ‘‘अचानक मेरा सामना बगलबंद वाला काला चोगा पहने एक भूत से होगया। मैंने सोचा, क्या यह यहूदी है? लिंत्स शहर में तो ऐसे नहीं दिखाई देते। मैंने चुपके-चुपके उस आदमी को ध्यान से देखा, उसके विदेशी चेहरे, उसके एक-एक नाक-नक्शे को जितना ध्यान से देखता गया, मेरे अंदर पहले सवाल ने नया रूप ले लिया। क्या वह जर्मन है?’’(अडोल्फ हिटलर, ‘माईन काम्फ़ ’, अमरीकी संस्करण, बोस्तोन, 1943, पृष्ठ : 56)

‘‘हिटलर के जवाब का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। फिर भी वह कहता है, जवाब के पहले उसने ‘‘किताबों के जरिये अपने संदेह को दूर करने का फैसला किया।’’ उन दिनों वियेना में जो यहूदी-विरोधी साहित्य काफी बिक रहा था, वह उसमें खो गया। फिर सड़कों पर सारी स्थितियों को करीब से देखने लगा। वह कहता है, ‘‘मैं जहां भी जाता, हर जगह मुझे यहूदी नजर आने लगे और मैं उन्हें जितना अधिक देखता, वे मुझे बाकी लोगों से अलग दिखाई देने लगे। …बाद में चोगा पहने लोगों की गंध से मैं बीमार सा होने लगा।’’(वही, पृ : 56-57)

‘‘इसके बाद, वह कहता है, ‘‘उसने उन ‘चुनिंदा लोगों’ के शरीर पर नैतिक धब्बों को देख लिया। …खास तौर पर पाया कि सांस्कृतिक जीवन में ऐसी कोई गंदगी या लंपटगिरी नहीं है, जिसके साथ कोई न कोई यहूदी न जुड़ा हुआ हो। इस मवाद को यदि आप सावधानी से छेड़े तो रोशनी गिरते ही किसी सड़े हुए अंग के कीड़ों की तरह चौंधिया कर ये किलबिलाते दिख जायेंगे।’’ वह कहता है, उसने पाया कि वैश्यावृत्ति और गोरे गुलामों के व्यापार के लिये मुख्यत: यहूदी जिम्मेदार हैं। इसे ही आगे बढ़ाते हुए कहता है, ‘‘पहली बार जब मैंने बड़े शहर की गंदगी में इस भयानक धंधे को चलाने वाला घुटा हुआ, बेशर्म और शातिर यहूदी को देखा तो मेरी पीठ में एक सनसनी दौड़ गयी।’’(वही, पृ : 59)

‘‘यहूदियों के बारे में हिटलर की इन उत्तेजक बातों का काफी संबंध उसकी एक प्रकार की विकृत कामुकता से है। उस समय वियेना के यहूदी-विरोधी प्रकाशनों का यह खास चरित्र था। जैसाकि बाद में फ्रंखोनिया के हिटलर के एक खास चमचे, न्यूरेमबर्ग के अश्लील साप्ताहिक ‘Der Stuermer’ के मालिक में देखा गया, वह एक घोषित विकृत मानसिकता का व्यक्ति था और हिटलर के शासन (थर्ड राइख) का सबसे घृणास्पद व्यक्ति था। मीन कैम्फ में यहूदियों की ऐसी-तैसी करने के लिये जघन्य संकेतों वाली बातें भरी हुई हैं कि यहूदी मासूम ईसाई लड़कियों को फांसते हैं और इसप्रकार उनके खून को गंदा करते हैं। हिटलर ही ‘‘घिनौने, कुटिल, चालबाज हरामी यहूदियों द्वारा सैकड़ों हजारों लड़कियों को फुसलाने की डरावनी कहानियां’’ लिख सकता है। रूडोल्फ ओल्डेन कहता है कि हिटलर के इस यहूदी-विरोध की जड़ में उसकी दमित कामुक वासनाएं हो सकती है। यद्यपि तब वह बीस-पच्चीस साल का था। जहां तक जानकारी है, वियेना की उसकी यात्रा में उसका औरतों से किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं हुआ था।

‘‘हिटलर आगे कहता है, ‘‘धीरे-धीरे मैं उनसे नफरत करने लगा। यही वह समय था जब मेरे जीवन में सबसे बड़ा आत्मिक भूचाल आया था। मैं अब कमजोर घुटनों वाला शहरी नहीं रह गया। यहूदी-विरोधी होगया।’’ (वही, पृ : 63-64)

‘‘अपने बुरे अंत के समय तक वह एक अंधा उन्मादी ही बना रहा। मौत के कुछ घंटे पहले लिखी गयी अपनी अन्तिम वसीयत में भी उसने युद्ध के लिये यहूदियों को जिम्मेदार ठहराया, जबकि इस युद्ध को उसीने शुरू किया था जो अब उसे और थर्ड राइख को खत्म कर रहा था। यह धधकती हुई नफरत, जिसने उस साम्राज्य के इतने सारे जर्मनों को ग्रस लिया था, अंतत: इतने भयंकर और इतने बड़े पैमाने के कत्ले-आम का कारण बनी कि उसने सभ्यता के शरीर पर ऐसा बदनुमा दाग छोड़ दिया है जो उस समय तक कायम रहेगा जब तक इस धरती पर इंसान रहेगा।’’ (William L. Shirer, The Rise and Fall of the Third Reich, Fawcett Crest, New York, छठा संस्करण, जून 1989, पृष्ठ : 47-48)

यहां उल्लेखनीय है कि भारत में संघ परिवारियों के बीच हिटलर की आत्मकथा ‘माईन काम्फ़ ’ एक लोकप्रिय किताब है, जबकि साधारण तौर पर इस किताब को दुनिया में बहुत ही उबाऊ और अपठनीय किताब माना जाता है। लेकिन, जर्मन इतिहासकार वर्नर मेसर के शब्दों में, ‘‘लोगों ने हिटलर की उस अपठनीय पुस्तक को गंभीरता से नहीं पढ़ा। यदि ऐसा किया गया होता तो दुनिया अनेक बर्बादियों से बच सकती थी।’’ (देखें, हिटलर्स माईन काम्फ़  : ऐन एनालिसिस)

पूरी तरह से हिटलर के ही नक्शे-कदम पर चलते हुए भारत में सांप्रदायिक नफरत के आधार पर एक फासिस्ट और विस्तारवादी शासन की स्थापना के उद्देश्य से आरएसएस का जन्म हुआ था। इसके पहले सरसंघचालक, गुरू गोलवलकर के शब्दों में, “अपनी जाति ओर संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों – यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहां अपने सर्वोंच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हो, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता है। हिंदुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।’’(एम.एस.गोलवलकर, वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड, पृष्ठ : 35)

‘लव जेहाद’ के मौजूदा प्रसंग से फिर एक बार यही पता चलता है कि संघ परिवार के लोग आज भी कितनी गंभीरता से हिटलर की दानवीय करतूतों से अपना ‘सबक’ लेकर ‘मूलगामी फर्क वाली जातियों और संस्कृतियों के सफाये’ के घिनौने रास्ते पर चलना चाहते हैं।

योगी के जहरीले बोल और मोदी का दोगुलापन

 गोरक्षपीठ के उत्तराधिकारी और अंतरराष्ट्रीय हिन्दू महासंघ के अग्रणी नेता 42 वर्षीय योगी आदित्यनाथ खरी-खरी कहने वाले उन चुनिंदा नेताओं में से हैं जो कई बार अपने विचारों को लेकर सार्वजनिक रूप से अपनी ही पार्टी के ख़िलाफ़ खड़े नज़र आते हैं.

संसद में कॉमन सिविल कोड, धर्मांतरण या ‘इंडिया दैट इज़ भारत’ के स्थान पर संविधान में ‘भारत दैट इज़ हिंदुस्तान’ करने जैसे निजी विधेयक पेश करने या फिर 27 ज़िलों में फैले हिन्दू युवा वाहिनी जैसे अपने समानांतर संगठन के चलते वे हमेशा चर्चा में रहे.

क्लिक करेंयोगी आदित्यनाथ प्रदेश में बड़ा जनाधार रखने वाले नेताओं में से एक हैं जो हर चुनाव में अपना वोट प्रतिशत बढा लेते हैं.

गोरखपुर सीट से लगातार पांचवीं बार सांसद बने योगी की छवि आमतौर पर एक उग्र हिंदूवादी नेता की ही मानी जाती है.

इसके पीछे उनके क्लिक करेंराजनीतिक करियर में 1998 से लेकर 2004 तक आए कई विवाद ज़िम्मेदार हैं. 2007 में गोरखपुर में साम्प्रदायिक झड़प की कुछ घटनाओं के बाद तत्कालीन सपा सरकार ने उन्हें गिरफ़्तार कर जेल भेजा था जिसकी प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में उग्र प्रतिक्रिया भी हुई थी.

पिछले दिनों उनका कुछ वर्ष पूर्व आज़मगढ़ की सभा में दिए गए एक भाषण का वीडियो वायरल हो गया था जिसमें वे यह कहते नज़र आए कि अगर मुस्लिम समुदाय का कोई व्यक्ति एक हिन्दू लड़की को ले जाएगा तो बदले में हम 100 मुस्लिम लड़कियों को ले आएंगे.

तब योगी ने इसे साज़िश करार देते हुए इसकी फोरेंसिक जांच की मांग की थी.

एक दिन बाद ही एक और वीडियो को लेकर अधिवक्ता शहजाद पूनावाला ने राष्ट्रीय क्लिक करेंअल्पसंख्यक आयोग में शिकायत दर्ज कराई जिसमें मंच पर योगी की मौजूदगी में कुछ अप्रिय टिप्पणियां की जा रही हैं.

हालांकि योगी का कहना है कि वह अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नहीं हैं बल्कि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के ख़िलाफ़ हैं.

‘हिंदुत्व और विकास’ की अपनी घोषित प्राथमिकताओं के चलते उन्हें उप चुनावों की ज़िम्मेदारी देकर पार्टी उनकी सांगठनिक क्षमता का लाभ तो उठाना ही चाहती है, साथ ही प्रदेश में कुछ दिनों से दिख रहे नेतृत्व के खालीपन को भी भरना चाहती है.

राजनीतिक पंडितों का कहना है कि योगी को सामने लाकर पार्टी एक तीर से कई शिकार करना चाहती है.

इन उप चुनावों में पूरे प्रदेश ख़ासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जिस तरह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के हालात हैं उसमें योगी की हिंदुत्व वाली छवि भी पार्टी को फ़ायदा दिला सकती है.

राजेश कुमार जैसे मगरमच्छों का क्या बिगाड़ पाएंगे जावलकर?

Deepak Azad/ उत्तराखंड में घपले-घोटालों का सिलसिला अनवरत जारी है। भ्रष्ट नौकरशाही और राजनेताओं की चमड़ी कमीशनखोरी करते-करते इतनी मुठिया चुकी है कि उन पर न तो किसी जांच रिपोर्ट का असर होता है और न ही उन्हें रत्तीभर शर्म ही महसूस होती है। कमीशनखोरी, घपले-घोटालों के लिए कुख्यात सूचना महकमे में बैठे भ्रष्ट अफसर तो इतने बलवान हैं कि जब एक ईमानदार आईएएस दिलीप जावलकर ने इनके कुकर्मों की जांच करवाकर कार्रवाई के लिए कदम बढ़ाए तो उनको ही विभाग से विदा करवा दिया गया। नतीजन जावलकर के आदेश पर हुए स्पेशल आडिट की रिपोर्ट धूल फांक रही है। इस सबसे अब एक आम धारणा जड़ बना चुकी है कि भ्रष्टाचारियों का कुछ नहीं बिगड़ सकता है, आप चाहे तो कितना ही चिल्लाते रहो या कागज पोतते रहो। इस जड़ता को तोड़ने की दिशा में मैने खुद जावलकर की आडिट रिपोर्ट को आधार बनाते हुए पुलिस में सूचना विभाग के घोटालेबाजों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने के लिए शिकायत की थी। पुलिस महानिदेशक ने मेरी शिकायत को थाना डालनवाला भेज दिया था, जिस पर मुझे धारा चैकी से शिकायत के सन्दर्भ में एकबार बुलावा भी आया। एक दरोगा के बुलावे पर मैं चैकी भी गया, लेकिन तब से मेरी शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। यह करीब छह माह पुराना घटनाक्रम है। सूचना महानिदेशक रहते हुए जिन जावलकर साहब को आडिट रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई शुरू करने पर सूचना निदेशालय के भ्रष्टों ने डीजी से ही हटवा दिया था, आज करीब छह माह बाद वे ही जावलकर साहब फिर डीजी का प्रभार देख रहे हैं। अब उनसे उम्मीद है कि वे राजेश कुमार जैसे मगरमच्छों के खिलाफ कार्रवाई करने की दिशा में कदम उठाएंगे। इस सन्दर्भ में मैं जल्द ही सूचना महानिदेशक को एक प्रतिवेदन देने जा रहा हैं। अगर इस पर अब भी कोई कार्रवाई नहीं होती है तो अदालत ही इसका आखिरी पड़ाव होगा।

 

सेवा में,
      पुलिस महानिदेशक
      उत्तराखंड पुलिस

विषयः सरकारी धन के दुरूपयोग व गबन के आरोपियों के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम   के तहत मुकदमा दर्ज कर दोषियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई के संबंध में

महोदय,
      निवेदन इस प्रकार है कि राज्य के सूचना महानिदेशालय कार्यालय में कतिपय अधिकारियों द्वारा नियमों की अनदेखी कर कुछ संस्थाओं के साथ मिलीभगत कर सरकारी धन का दुरूपयोग-गबन किया जा रहा है। गत वर्ष तत्कालीन सूचना महानिदेशक श्री दिलीप जावलकर द्वारा निदेशालय के भ्रष्ट अधिकारियों के कारनामों की जांच के लिए वर्ष 2011-12 का स्पेशल आडिट कराया गया, जिसमें भ्रष्ट तौर-तरीकों से अफसरों ने कुछ संस्थाओं यथा कुमार वेजिटेरियन, प्रभातम, कलर चैकर्स आदि के साथ साजिश कर लाखों रूपयों की हेराफेरी का मामला सामने आया है। आडिट रिपोर्ट के अवलोकन से सरकारी धन के दुरूपयोग व गबन में अपर निदेशक अनिल चंदोला, संयुक्त निदेशक राजेश कुमार, सहायक निदेशक एसके चैहान व वित्त अधिकारी ओपी पंत की भूमिका संदिग्ध प्रतीत होती है।

अतः निवेदन है कि आडिट रिपोर्ट को आधार मानते हुए भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज कर सरकारी धन के दुरूपयोग की जांच कर संबंधित के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाए।

संलग्नः आडिट रिपोर्ट 

                                                               प्रार्थी

                                                          दीपक आजाद

उत्तराखंड के सूचना निदेशालय में करोड़ों का घोटाला, सरकार खामोश

watchdog/जांच हुई तो जेल जा सकते हैं चंदोला, राजेश और चैहान की तिकड़ी-

उत्तराखंड सरकार का सूचना महकमा अपने कुकर्मो को लेकर कुख्यात है। मुख्यमंत्री के अधीन आने वाले इस महकमें के अफसर विज्ञापनरूपी अस्त्र का प्रयोग कर अपने काले-कारनामों को सार्वजनिक होने से रोकने में अकसर कामयाब होते रहे है। इनकी कुख्याती का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ये इमानदार अफसरों को भी निदेशालय में टिकने नहीं देते हैं। मिसाल के तौर पर सूचना महानिदेशक बनकर आए दिलीप जावलकर का नाम लिया जा सकता है। निदेशालय में बैठे अनिल चंदोला, राजेश कुमार और चैहान जैसे अफसरों के भ्रष्ट गठजोड़ की दबंगई का आलम यह है कि जब जावलकर ने इनके काले कारनामों की जांच कराने के बाद कार्रवाई की तैयारी शुरू की तो जावलकर को ही डीजी के पद से चलता कर दिया गया। नजीजन जावलकर के हटने के बाद करोड़ों के घोटाले की आडिट रिपोर्ट धूंल फांक रही है।
वाॅचडाॅग पत्रिका के प्रबन्ध संपादक विमल दीक्षित को आरटीआई से हासिल हुई आडिट रिपोर्ट के ब्यौरे चैंकाने वाले हैं। आडिट रिपोर्ट में इन भ्रष्ट अफसरों के कुकर्मों का सिल-सिलेवार खुलासा हुआ है। इन भ्रष्ट अफसरों ने विज्ञापन के नाम पर तो भारी घोटाला किया ही, पत्रकारों की आवभगत की आड़ में भी माल काटने मे कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। एक वित्तीय वर्ष 2011-12 में ही 45 लाख रूपये पत्रकारों की आवाभगत पर ही फूंक दिए गए। यह आवाभगत कुछ इस तरह की गई कि पत्रकारों को मैनेज करने के नाम पर महंगी घडि़यां तक खरीदी तो र्गइं, लेकिन बांटी नहीं गई। लाखों रूपयों में खरीदी गई घडियों को भी ये भ्रष्ट अफसरान खा गए। आडिट रिपोर्ट में करीब चार करोड का गोलमाल सामने आया है। यह वह गोलमाल है जो सीधे अफसरों के पेट में गया है, विज्ञापन के नाम पर कमीशन का मोटा खेल इसमें शामिल नहीं है।
अपर निदेशक अनिल चंदोला, संयुक्त निदेशक राजेश कुमार, सहायक निदेशक केएस चैहान और वित अधिकारी ओपी पंत की भ्रष्ट चैकड़ी ने वित्तीय वर्ष 2011-12 में पत्रकारों की आवाभगत के नाम पर मोटा खेल खेला। आडिट रिपोर्ट के मुताबिक 14 लाख रूपये पत्रकारों को प्राइवेट गाडियां उपलब्ध कराने, 3 लाख रूपये होटलों में ठहरने और 29 लाख रूपये खाने और 12 लाख रूपये गिफट देने के नाम पर खर्च किए गए। करीब तीन लाख की कीमत से पत्रकारों के लिए तीन सौ रिस्ट वाॅच की खरीद की गई, लेकिन ये घडिया केवल कागजों में खरीदी गईं। देहरादून में कई होटलों को पत्रकारों की आवाभगत के नाम पर लाखों रूपयों का भुगतान किया गया। पैकड फूड के नाम पर 80 हजार रूप्ये बिल के अतिरिक्त भुगतान किए गए। पैकेड की संख्या के नाम पर जो खेल खेला गया वह अलग है। अफसरों की मनमानी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि निदेशालय के स्टाफ की चाय के नाम पर ही साढे चार लाख रूपये और लंच व डिनर के नार पर 24 हजार रूपये खर्च किए गए, जबकि नियमानुसार मुफत चाय व लंच-डिनर का कोई प्रावधान नहीं है।
होर्डिग्स व विज्ञापनों की आड में भी मोटा गोलमाल किया गया। एक विज्ञापन एजेंसी को तो सर्विस टैक्स के नाम पर दस लाख रूपये का अधिक भुगतान कर दिया गया। ऐसी ही सरकारी बसों में विज्ञापन के नाम पर एक अन्य विज्ञापन एजेंसी को एक लाख चैदह हजार रूप्ये का अधिक भुगतान किया गया। परिवहन निगम की बसों में विज्ञापन लगाने के नाम पर तो दो माह के अंतराल में ही करीब 50 लाख रूप्ये का ठेका प्रभातम विज्ञापन एजेंसी को दिया गया। इसमें किस हदतक घोटाला किया गया, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि निगम की बसों में विज्ञापन लगाने के नाम पर पहले 24 लाख का ठेका दिया गया और फिर उन्हीं बसों पर सरकारी विज्ञापन चस्पा करवाने के लिए एक महीने बाद ही 26 लाख रूप्ये का ठेका दे दिया  गया। यह सीधे-सीधे सरकारी धन को ठिकाने लगाने का मामला है। यही नहीं सूचना निदेशालय के भ्रष्ट अफसरों ने विज्ञापन एजेंसी कलर चैकर्स के साथ सांठगांठ कर उसे एक ही बिल का दो बार भुगतान कर सरकारी खजाने को 9 लाख का चूना लगा दिया। कुछ ऐसा ही मोटा खेल सूचना विभाग के इन भ्रष्ट अफसरों द्वारा समय-समय पर प्रकाशित होने वाली विकास पुस्तिकाओं, मासिक पत्रिका, कलेंडर और टेलीफोन डायरी के नाम पर भी किया गया। ऐसा नहीं है कि भ्रष्ट अफसर ही सरकारी खजाने को चट कर मजे लूट रहे हैं, बल्कि पत्रकारों की भी एक जमात भी सैर सपाटे के लिए सूचना विभाग का जमकर दोहन कर रहे हैं। आॅडिट रिपोर्ट में करीब साढे पांच लाख रूपये पत्रकारों ने अपने निजी कार्यो के नाम पर सैर-सपाटे पर ही उडा दिए। जून 2011 में औली सैफ गेम्स में गए पत्रकारों को लंच पैकेड खिलाने के नाम पर अफसरों ने सीधे-सीधे 9 हजार रूपये का गोलमाल कर दिया। इसी तरह कई चैनलों ने विज्ञापन के नाम पर भुगतान तो लिया लेकिन चैनल पर विज्ञापन दिखाया भी गया, इसका सबूत अधिकारी आडिटर्स को नहीं दिखा पाए। गीत एवं नाटय प्रभाग के तहत भी लाखों रूपयों का घोटाला किया गया। अगर इस आडिट रिपोर्ट पर ईमानदारी से कार्रवाई हुई तो कई प्रिंटर्स और विज्ञापन एजेंसियों के संचालक को भी इन भ्रष्ट अफसरों के साथ जेल की रोटी खानी पड़ सकती है। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के पास सूचना विभाग भी है। मुख्य सचिव से लेकर सूचना सचिव तक को सूचना विभाग के घोटालों की जानकारी है, मगर विभाग मुख्यमंत्री के पास होने के कारण वह कुख्यात अफसरों के खिलाफ कार्रवाई करने से घबरा रहे हैं। यही नहीं मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेताओं ने भी इस पर खामोशी ओढ़ रखी है। बात-बात पर उत्तराखंड के हितों की दुहाई देने वाला उकेडी भी जनता की गाढ़ी कमाई की लूट पर चुप है। कहते हैं कि राज्य गठन के बाद से सीबीआई जैसी संस्था सूचना विभाग के लेखे-जोखे की जांच करे तो तमाम छोटे से लेकर बड़े अफसर जेल की चक्की पीस रहे होंगे।

शादी से पहले मेडिकल टेस्ट जरूरी करने पर विचार करे सरकार: हाई कोर्ट

मदुरै
नपुंसकता और सेक्स में रुचि न होने की वजह से शादियों के नाकामयाब होने की बढ़ती घटनाओं से चिंतित मद्रास हाई कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार को एक नई व्यवस्था पर विचार करने के लिए कहा है। हाई कोर्ट ने कहा है कि सरकार शादी से पहले मेडिकल चेक अप को जरूरी बनाने पर विचार कर सकती है।
कोर्ट ने कहा कि शादी से पहले ‘नपुंसकता’ या ‘सेक्स से विरक्ती’ की जांच के लिए अगर दूल्हा-दुल्हन का मेडिकल टेस्ट करवाया जाए, तो इन वजहों से शादियों के टूटने की दर को कम किया जा सकता है। साथ ही अगर कोई शख्स अपनी समस्या छिपाता है तो उसके लिए सजा या उसके पार्टनर को मुआवजा वगैरह देने का इंतजाम किया जा सकता है।

अदालत ने सेक्स समस्याओं के चलते वैवाहिक अलगाव को गंभीर और मानव त्रासदी करार देते हुए केंद्र और तमिलनाडु सरकार से पांच सवालों के जवाब देने के लिए कहा है। न्यायमूर्ति एन. किरूबाकरन ने एक व्यक्ति द्वारा दायर की गई याचिका पर अपने अंतरिम आदेश यह निर्देश दिया। उन्होंने कहा कि नपुंसकता की वजह से शादियां टूटने का मामला गंभीर है। ऐसे में ऐसे इंतजाम किए जाने चाहिए कि इस वजह से शादियां टूटने की नौबत न आए।

हाई कोर्ट ने चिंता जताई कि अगर कोई शख्स अपनी स्थिति छिपाकर किसी से शादी करता है तो वह गलत है। ऐसे में ऐसी व्यवस्था पर विचार किया जाए, जिसके तहत शादी से पहले दूल्हा-दुल्हन दोनों का मेडिकल चेकअप को जरूरी कर दिया जाए।

जज ने यह भी जानना चाहा कि क्या अधिकारियों को इस बात की जानकारी है कि नपुंसकता और सेक्स में रुचि न होने की वजह से शादियों का नाकाम होना बढ़ गया है।

कोयला घोटाला: 1993-2010 के आवंटन अवैध

 सोमवार, 25 अगस्त, 2014

 

छत्तीसगढ़ कोल ब्लॉक

उनके मुताबिक़ अदालत ने कहा कि इन क्लिक करेंकोयला ब्लॉक के आवंटन में कोई पारदर्शिता नहीं बरती गई और मनमर्ज़ी से इन्हें बांटा गया था.

भारतीय जनता पार्टी के नेता शाहनवाज़ हुसैन ने कहा है कि उनकी पार्टी अदालत के फ़ैसले का अध्ययन कर रही है.

उन्होंने कहा, “अदालत ने कहा है कि इन्हें रद्द किया जाए या नहीं, इसका फैसला बाद होगा.”

लेकिन इसके बहाने उन्होंने एक बार फिर केंद्र की पूर्व यूपीए सरकार पर निशाना साधा.

हालांकि जिस अवधि के आवंटनों को अवैध करार दिया गया है, उसमें एनडीए सरकार के दौरान हुए आवंटन भी शामिल हैं.

कोयला घोटाला

प्रशांत भूषण ने कहा कि जिन कंपनियों ने खनन शुरू कर दिया है उनके बारे में विचार करने के लिए कोर्ट एक सितंबर को सुनवाई करेगी.

कोयला खदान

प्रशांत भूषण ने कहा कि रिलायंस को कोयला बेचने की अनुमति दी गई थी और सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक इससे 29,000 करोड़ रुपए का सरकार को नुकसान हुआ था.

भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ क्लिक करेंकोयला घोटाले से एक लाख 86 हज़ार करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान हुआ है.

सीएजी ने कहा था कि निजी कंपिनयों को कोयला के ब्लॉक बिना बोली लगाए दे दिए गए.

सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक, एसार पॉवर, हिंडाल्को, टाटा स्टील, टाटा पॉवर, जिंदल स्टील एंड पॉवर सहित 25 कंपनियों को क्लिक करेंविभिन्न राज्यों में कोयले की खानेंदी गईं.

पूर्व कोल सचिव पीसी पारिख ने अदालत के फैसले का स्वागत किया है. उन्होंने एनडीटीवी से बात करते हुए कहा कि स्क्रीनिंग कमेटी के पास कोई वैधानिक अधिकार नहीं थे.

कोयला घोटाला

सूचना निदेशालय के घोटालेबाजों के खिलाफ पुलिस में शिकायत

WatchDog/ दीपक आजाद//
उत्तराखंड में घपले-घोटालों का सिलसिला अनवरत जारी है। भ्रष्ट नौकरशाही और राजनेताओं की चमड़ी कमीशनखोरी करते-करते इतनी मुठिया चुकी है कि उन पर न तो किसी जांच रिपोर्ट का असर होता है और न ही उन्हें रत्तीभर शर्म ही महसूस होती है। कमीशनखोरी, घपले-घोटालों के लिए कुख्यात सूचना महकमे में बैठे भ्रष्ट अफसर तो इतने बलवान हैं कि जब एक ईमानदार आईएएस दिलीप जावलकर ने इनके कुकर्मों की जांच करवाकर कार्रवाई के लिए कदम बढ़ाए तो उनको ही विभाग से विदा करवा दिया गया। नतीजन जावलकर के आदेश पर हुए स्पेशल आडिट की रिपोर्ट धूल फांक रही है। इस सबसे अब एक आम धारणा जड़ बना चुकी है कि भ्रष्टाचारियों का कुछ नहीं बिगड़ सकता है, आप चाहे तो कितना ही चिल्लाते रहो या कागज पोतते रहो। इस जड़ता को तोड़ने की दिशा में मैने खुद जावलकर की आडिट रिपोर्ट को आधार बनाते हुए पुलिस में सूचना विभाग के घोटालेबाजों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने के लिए शिकायत की है। ये रहा राज्य के पुलिस महानिदेशक को लिखा शिकायती पत्र……देखते हैं पुलिस इस पर क्या रंग दिखाती है…..

सेवा में,
      पुलिस महानिदेशक
      उत्तराखंड पुलिस

विषयः सरकारी धन के दुरूपयोग व गबन के आरोपियों के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम   के तहत मुकदमा दर्ज कर दोषियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई के संबंध में

महोदय,
      निवेदन इस प्रकार है कि राज्य के सूचना महानिदेशालय कार्यालय में कतिपय अधिकारियों द्वारा नियमों की अनदेखी कर कुछ संस्थाओं के साथ मिलीभगत कर सरकारी धन का दुरूपयोग-गबन किया जा रहा है। गत वर्ष तत्कालीन सूचना महानिदेशक श्री दिलीप जावलकर द्वारा निदेशालय के भ्रष्ट अधिकारियों के कारनामों की जांच के लिए वर्ष 2011-12 का स्पेशल आडिट कराया गया, जिसमें भ्रष्ट तौर-तरीकों से अफसरों ने कुछ संस्थाओं यथा कुमार वेजिटेरियन, प्रभातम, कलर चैकर्स आदि के साथ साजिश कर लाखों रूपयों की हेराफेरी का मामला सामने आया है। आडिट रिपोर्ट के अवलोकन से सरकारी धन के दुरूपयोग व गबन में अपर निदेशक अनिल चंदोला, संयुक्त निदेशक राजेश कुमार, सहायक निदेशक एसके चैहान व वित्त अधिकारी ओपी पंत की भूमिका संदिग्ध प्रतीत होती है।

अतः निवेदन है कि आडिट रिपोर्ट को आधार मानते हुए भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज कर सरकारी धन के दुरूपयोग की जांच कर संबंधित के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाए।

संलग्नः आडिट रिपोर्ट 

                                                               प्रार्थी

                                                          दीपक आजाद