…….राज्य गीत तुम्हारा हरगिज नहीं गाऊंगा

Deepak Azad//हरीश रावत के राज में जहां इस राज्य में माफियागिरी अपने चरम पर है तो दूसरी ओर कोदा-झंगोरा के गीत गाते हुए राज्य गीत के नाम पर सियासी कर्मकांड भी खूब हो रहा है। जिन अभावों, पीड़ाओं और सवालों को लेकर इस राज्य की लड़ाई लड़ते हुए लोगों ने शहादतें दी, उसके पीछे कई ऐसे गीतों का साथ रहा है जो आंदोलन के वक्त रचे गए। लेकिन हरीश रावत ने आंदोलन की प्राण-प्रतिष्ठा रहे जनगीतों के बजाय ठीक उसी तरह एक कर्मकांडी प्रतियोगिता के जरिये राज्यगीत की रचना की है जैसे वे एक राजनेता के तौर पर पिछले दो सालों से करते आ रहे हैं। बहुगुणा के कुशासन का राग अलापते-अलापते सीएम की कुर्सी तक पहुंचने के बाद हरीश रावत जिस लठैतगिरी के बीज इस राज्य में बो रहे हैं वह उनके असल इरादों को दर्शाता है। सवाल यह है कि वे चाहे राज्यगीत का कर्मकांडी उत्सव मनायें या फिर कुछ और, सवाल यह है कि इतिहास हरीश रावत को उनके पूर्ववर्तियों की ही पांत में खड़ा करेगा, या फिर वे उनसे भी गये गुजरे साबित होंगे? खैर, हरीश रावत की इस कर्मकांडी उत्सवधर्मिता पर जनसरोकारी पत्रकार दाताराम चमोली ने एक कविता के जरिये गंभीर सवाल उठाए हैं। प्रतिरोध का यह स्वर ही खुद को छली, लुटती-पिटती महसूस करती उत्तराखंड की जनता की असल आवाज है।

राजद्रोही कहलाना चाहूंगा
मगर राज्य गीत तुम्हारा
हरगिज नहीं गाऊंगा
मरते दम नहीं गाऊंगा।
पथरीले पहाड़ी रास्तों पर
फटी हैं मेरी भी एड़ियां
मगर खुद को “जमीनी” कह
बदनाम न होना चाहूंगा
हरगिज न होना चाहूंगा।
राजनीति करना चाहूंगा
मगर टोने-टोटकों की नहीं
केदार का बाघंबर उतार
अपना झंडा न बनाऊंगा
गीत आपदा पीड़ितों के ही गाऊंगा
गीत दर्द और संघर्ष के ही गाऊंगा
राज्य गीत मगर तुम्हारा
हरगिज नहीं गाऊंगा
मरते दम नहीं गाऊंगा।
[ दाताराम चमोली, 6 फरवरी 2016 ]

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