डाॅ वेद प्रताप वैदिक /WatchDog/// इंटरनेट पर दिखाई जाने वाली अश्लील वेबसाइटों के बारे में सरकार ने शुरू में बहुत ही अच्छा रवैया अपनाकर 857 अश्लील वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन फिर उसने सिर्फ बच्चों की अश्लील वेबसाइटों पर अपने प्रतिबंध को सीमित कर दिया। सूचना एवं तकनीकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इसकी घोषणा की। सरकार ने यह शीर्षासन क्यों किया? सरकार ने यह शीर्षासन किया, अंग्रेजी अखबारों और चैनलों की हायतौबा के कारण! किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वह अश्लीलता के समर्थकों का विरोध करे। इससे साफ जाहिर होता है कि स्वतंत्र भारत में भी दिमागी गुलामी की जड़ें कितनी गहरी और हरी हैं। आप यदि अंग्रेजी में कोई अनुचित और ऊटपटांग बात भी कहें, तो वह मान ली जाएगी। मुझे आश्चर्य है कि संसद और विधानसभाओं में भी किसी नेता ने इस मुद्दे को नहीं उठाया। देश में संस्कृति और नैतिकता का झंडा उठाने वाली संस्थाओं-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आर्यसमाज और गांधी-संस्थाओं की चुप्पी भी आश्चर्यजनक है। सारे साधु-संतों, मुल्ला-मौलवियों, ग्रंथियों और पादरियों का मौन भी चौकाने वाला है। शायद इसका कारण यह भी हो सकता है कि इन्हें पता ही न हो कि इंटरनेट पोर्नोग्राफी क्या होती है। यह तो इंदौर के वकील कमलेश वासवानी की हिम्मत है कि उन्होंने इस मामले को अदालत में लाकर अश्लील वेबसाइटों के माथे पर तलवार लटका दी है।
यदि जनता के दबाव के आगे कोई सरकार झुकती है तो इसे मैं अच्छा ही कहूंगा। इसका मतलब यही है कि सरकार तानाशाह नहीं है। भूमि-अधिग्रहण विधेयक पर भी सरकार ने लचीले रवैए का परिचय दिया है, लेकिन अश्लीलता के सवाल पर क्या सरकार यह कह सकती है कि वह लोकमत का सम्मान कर रही है? दस-बीस अंग्रेजी अखबारों में छपे लेखों और लगभग दर्जन भर चैनलों की हायतौबा को क्या 130 करोड़ लोगों की राय मान लिया जा सकता है? इसके पहले कि सरकार अपने सही और साहसिक कदम से पीछे हटती, उसे एक व्यापक सर्वेक्षण करवाना चाहिए था, सांसदों की एक विशेष जांच समिति बिठानी चाहिए थी, अपने मार्गदर्शक मंडल से सलाह करनी चाहिए थी। ऐसा किए बिना एकदम पल्टी खा जाना किस बात का सूचक है? एक तो इस बात का कि वह सोच-समझकर निर्णय नहीं लेती और जो निर्णय लेती है, उस पर टिकती नहीं है यानी उसका आत्म-विश्वास डगमगा रहा है। यदि मोदी सरकार का यह हाल है तो देशवासी अन्य सरकारों से क्या उम्मीद कर सकते हैं?
अब संघ स्वयंसेवकों की यह सरकार अपनी पीठ खुद ठोक रही है कि हमने वेबसाइट आॅपरेटरों को नया निर्देश दिया है कि वे बच्चों से संबंधित अश्लील वेबसाइटों को बंद कर दें। बेचारे आॅपरेटर परेशान हैं। वे कहते हैं कि कौन-सी वेबसाइट बाल-अश्लील है और कौन-सी वयस्क-अश्लील हैं, यह तय करना मुश्किल है। सिर्फ बाल-अश्लील वेबसाइटों पर प्रतिबंध को अदालत और सरकार दोनों ही उचित क्यों मानती हैं? उनका कहना है कि इसके लिए बच्चों को मजबूर किया जाता है। वह हिंसा है। लालच है। मैं पूछता हूं कि वयस्क वेबसाइटों पर जो होता है, वह क्या है? ये वयस्क वेबसाइटें क्या औरतों पर जुल्म नहीं करतीं? औरतों के साथ जितना वीभत्स और घृणित बर्ताव इन वेबसाइटों पर होता है, उसे अश्लील कहना भी बहुत कम करके कहना है। पुरुष भी स्वेच्छा या प्रसन्नता से नहीं, पैसों के लिए अपना ईमान बेचते हैं। उन सब स्त्री-पुरुषों की मजबूरी, क्या उन बच्चों की मजबूरी से कम है? हमारी सरकार के एटार्नी जनरल अदालत में खड़े होकर बाल-अश्लीलता के खिलाफ तो बोलते हैं, जो कि ठीक है, लेकिन महिला-अश्लीलता के विरुद्ध उनकी बोलती बंद क्यों है? यह बताइए कि इन चैनलों को देखने से आप बच्चों को कैसे रोकेंगे? इन गंदे चैनलों के लिए काम करने वाले बच्चों की संख्या कितनी होगी? कुछ सौ या कुछ हजार? लेकिन इन्हें देखने वाले बच्चों की संख्या करोड़ों में है। क्या आपको अपने इन बच्चों की भी कुछ परवाह है या नहीं? सारे अश्लील वेबसाइटों पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन पैसे की खदान है। यह पैसा सरकारों को भी बंटता है। सरकारें ऐसे वेबसाइटों को इसलिए भी चलाते रहना चाहती हैं कि जनता का ध्यान बंटा रहे। उसके दिमाग में बगावत के बीज पनप न सकें। रोमन साम्राज्य के शासकों ने अपनी जनता को भरमाने के लिए हिंसक मनोरंजन के कई साधन खड़े कर रखे थे। पश्चिम के भौतिकवादी राष्ट्रों ने अपनी जनता को अश्लीलता की लगभग असीम छूट इसीलिए दे रखी है कि वे लोग अपने में ही मगन रहें, लेकिन इसके भयावह दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। हिंसा और दुष्कर्म के जितने अपराधी अमेरिकी जेलों में बंद हैं, दुनिया के किसी देश में नहीं हैं।
इन अश्लील वेबसाइटों की तुलना खजुराहो और कोणार्क की प्रतिमाओं तथा महर्षि वात्स्यायन के कामसूत्र से करना अपनी विकलांग बौद्धिकता का सबूत देना है। कामसूत्र काम को कला के स्तर पर पहुंचाता है। उसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का अंग बनाता है। वह काम का उदात्तीकरण करता है जबकि ये अश्लील वेबसाइटें काम को घृणित, फूहड़, यांत्रिक और विकृत बनाती हैं। काम के प्रति भारत का रवैया बहुत खुला हुआ है। वह वैसा नहीं है, जैसा कि अन्य देशों का है। उन संपन्न और शक्तिशाली देशों को अपनी दबी हुई काम-पिपासा अपने ढंग से शांत करने दीजिए। आप उनका अंधानुकरण क्यों करें?
लेखक डॉ. वेदप्रताप वैदिक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं.
यह आलेख भड़ास से साभार