जनता विशवास करती है कोई मुहर नहीं देखती

Yuva Deep Pathak//WatchDog//क्रांति की आसन्न बेला में जारकालीन रुस में बोल्शेविक सेनाऐं लड़ रहीं थीं ,दासता और युद्ध से तंग आ चुकी जनता भी क्रांति चाहती थी और गांव शहर सब जगह क्रांतिकारियों की मदद करती थी !
एक वाकया यूं पेश आया कि एक छोटा सैन्य दस्ता किसी गांव से गुजरा और गांव के किसान से उसका घोड़ा मांग लिया बोले “क्रांति के बाद लौटा देंगे !” किसान बोला तो कोई लिखत रसीद दे दो घोड़ा ले जाओ !” तो किसी ने कागज पर यूं ही लिख दिया “इस किसान का घोड़ा ले जा रहे हैं क्रांति के बाद लौटा देंगे !” बस न दस्तखत न मुहर, किसान ने अपना एकमात्र घोडा दे दिया और लिखत रख ली !
तो साब दिन बीते क्रांति हो गयी लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक सरकार बन गयी पर उस किसान को घोड़ा वापस न मिला वो जहां भी जाकर वो कागज दिखाये अधिकारी पूछें कि इस पर न दस्तखत हैं न मुहर कैसे मान लें ?
तंग आकर किसान मास्को पहुंच गया और राष्ट्रपति कामरेड लेनिन को कागज दिखाया और घोड़ा मांगा लेनिन ने फौरन नया घोड़ा देने का आदेश दिया और किसान की भागदौड़ का मुआवजा देने को कहा !
जब बात आयी कि इसमें कोई मुहर नहीं कोई दस्तखत नहीं तो आपने कैसे घोड़ा देने को कह दिया ?
कामरेड लेनिन ने कहा उसने विशवास किया था और घोड़ा दे दिया “जनता जब विशवास करती है तब कोई दस्तखत कोई मुहर नहीं देखती”
तो साब बात ये कि उत्तराखंड आंदोलन में दिल्ली कूच में बसें मालिकों ने दीं पेट्रोल पंप वालों ने तेल फ्री दिया होटल वालों ने हमसे खाने के पैसे नहीं लिये… वो प्यार वो विशवास तब भी जनता कोई मुहर कोई दस्तखत नहीं देख रही थी और उत्तराखंड बन भी गया बन के लुट रहा है उजड़ रहा है बिक रहा है और विरोध करने वालों,सच कहने वालों का मुंह बंद किया जा रहा है जेल-मुकदमे किये जा रहे हैं और वही जनता सब देख रही है और फिर बदल देगी !
इन्होंने जनता से घोड़ा (सत्ता) तो ले ली अब उसपे सवार हैं पर लौटा नहीं रहे जब लौटाऐंगे नहीं तो छीन लिया जायेगा !
क्योंकि जनता दस्तखत या मुहर नहीं देखती उन लड़ते हुए लोगों के दस्ते को देखती है जो अन्याय के खिलाफ लड़ने जा रहे हैं !

<strong>समाज व राजनीति की हलचलों पर गहरी निगाह रखने वाले दीप पाठक की फेसबुक वाॅल से साभार</strong>

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