लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी के नाम एक खुला पत्र

WatchDog//सत्ता की निरंकुशता, आततायियों व कुशासन के खिलाफ एक लोकगायक के तौर पर प्रतिरोध का स्वर बुलंद करने वाले नरेन्द्र सिंह नेगी द्वारा राज्यगीत को स्वर दिए जाने पर उनके प्रशंसक ही सवाल खड़ा कर रहे हैं। ऐसे ही एक प्रशंसक एसके शर्मा ने नेगीदा के नाम एक खुला खत अपनी फेसबुक वाल पर लिखा है।

प्रिय भाई नरेन्द्र सिंह नेगी जी,
उत्तराखंड की सांस्कृतिक चेतना में आपका सदैव अहम योगदान रहा है। आपने यहां के लोकगीतों को नये आयाम दिये हैं। उत्तराखंड के आम लोगों की पीड़ा को आपने अपने मधुर कंठ से समय- समय पर अभिव्यक्ति दी। हिमालय में विनाशकारी बांध परियोजनाओं के विरोध से लेकर उत्तराखंड राज्य आंदोलन तक चले तमाम जनांदोलनों में आप जनता के पक्ष में रहे। राज्य गठन के बाद भी सत्ता की मनमानी पर आपने जो तीखे प्रहार किए वह आपके मशहूर गीत नौछमी नारैण से ही बखूबी समझा जा सकता है। यही वजह है कि उत्तराखंड की जनता आपको दिल से चाहती है। अपेक्षा रखती है कि आप आज भी उसकी आवाज बने रहें।
आज राज्य किस हाल में है वह किसी से छुपा हुआ नहीं है। अपराधों से मैदान ही नहीं, शांत पहाड़ भी कांप रहे हैं। अकेले संवासिनी प्रकरण ने देवभूमि को शर्मसार कर दिया है। नैनीसार में विकास के नाम पर जिस प्रकार जनता के हक-हकूक छीनकर उसे पीटा जा रहा है, उससे लोग सरकार से खौफ खाने लगे हैं। अस्पतालों में डाक्टर नहीं हैं तो स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं, लेकिन पूंजीपतियों को जमीन देने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्कूलों का शिगूफा छोड़ा जा रहा है। मैं इसे मानवाधिकारों का घोर हनन मानता हूं। आखिर मैंने राज्य आंदोलन के दौरान मानवाधिकारों के संरक्षण की लंबी लड़ाई लड़ी है। राज्य के आपदा पीड़ितों की समस्याएं आज ढाई साल बाद भी ज्यों की त्यों हैं। इतनी समस्याएं हैं कि कहां तक लिखें। कई बार तो मन करता है कि लिखकर भी क्या करें जब सत्ता में बैठे लोगों को शर्म ही नहीं आती। खैर, बोलने -लिखने का स्वभाव नहीं छोड़ सकते।
नेगी जी, आज राज्य की हरीश रावत सरकार काम नहीं करना चाहती। उसके संरक्षण में फल-फूल रहा माफिया जनता से लेकर ईमानदार अधिकारियों पर खुलेआम हमले कर रहा है। दुनिया देख रही है कि किस तरह खनन रोकेने गए ईमानदार अधिकारियों को वाहनों तले कुचलने की कोशिशें हुई। सत्ता के मद में चूर राज्य के मंत्रियों के फूहड़ डांस से लेकर फायरिंग करने तक के कारमाने सुर्खियों में हैं, लेकिन इस सबसे जनता का ध्यान हटाने के लिए मुख्यमंत्री हरीश रावत राज्य गीत की रट लगाए हुए हैं। यह तो वही हो गया कि जब रोम जल रहा था तो नीरो बांसुरी बजा रहा था। क्या राज्य गीत से तमाम समस्याएं हल हो गई हैं, क्या सिर्फ गीत की ही कमी रह गई थी। मुझे दुख हुआ कि आपने इस गीत को स्वर दिया। हालांकि मैं आप पर अपना विचार थोप नहीं रहा हूं, बल्कि याद दिला रहा हूं कि जनता आप पर बहुत भरोसा करती है। मुझे न जाने क्यों लगता है कि आप थोड़ा चूक से गए हैं। आशा ही नहीं बल्कि विश्वास है कि आप मेरी बात को सहृदयता से ही लेंगे। धन्यवाद
शुभेच्छु
एस. के. शर्मा

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जांच के घेरे में आया उत्तराखंड का शीर्ष भ्रष्टाचारी नौकरशाह

WatchDog//उत्तराखंड का एक शीर्ष स्तर का रिटायर आईएएस अफसर जांच के घेरे में आ गया है। भ्रष्टाचार से काली कमाई करने वाला ये अफसर रिटायर होने के बाद भी सरकार की नाक का बाल बना हुआ है। इसकी काली करतूते उत्तराखंड से दिल्ली तक फैली हुई हैं। कांग्रेस से लेकर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से इसके गहरे रिश्ते हैं, मगर अब ये एक मामले में फंस चुका है। इससे पूछताछ की गई है और बयान भी लिए गए हैं। ये भ्रष्ट अफसर पिछले दिनों एक बिल्डर के ठिकानों पर पड़े छापों के बाद जांच एजेंसी की लपेट में आया। बिल्डर के यहां पड़े छापों में जो जांच हुई उसमें बिल्डर और रिटायर अफसर के बीच सैकड़ों बार फोन पर बातचीत हुई है। ये साहब इसी आधार पर गिरफत में आए। बताते चलें दिल्ली, गाजियाबाद, गुड़गांव और देहरादून में कारोबार कर रहा उक्त बिल्डर सत्ताशीर्ष पर भी अपना प्रभाव जमाये था। सरकार में शामिल एक बड़े नेता उसके करीबी हैं। आड़े वक्त में उस नेता के काम यही बिल्डर आया था और उसने सत्ता सिंहासन पर पहुंचाने का रास्ता साफ किया था। इस बात की चर्चा उद्योगपतियों से लेकर बिल्डरों तक में थी। बिल्डरों की एक मीटिंग में उक्त बिल्डर ने लम्बी-लम्बी हांकी। उसने बताया कि उसके विभिन्न शहरों में करोड़ों-अरबों के प्रोजेक्ट चल रहे हैं। उसकी इस चर्चा ने प्रतिद्वंद्वी बिल्डरों के कान खड़े कर दिये। वहां से ये बात निकलकर एक केन्द्रीय जांच एजेंसी के पास पहुंची। तब जांच एजेंसी हरकत में आई और टटोलने के लिहाज से बिल्डर के ठिकानों पर छापेमारी की। जांच में पता चला कि बिल्डर ने सर्वाधिक फोन काॅल एक रिटायर आइएएस अफसर को की। अफसर की भी काॅल डिटेल पाई गई। बिल्डर के ठिकानों पर पड़े छापों में कुछ सरकारी फाइलें जांच एजेंसी के हाथ लगीं। यहां से जांच एजेंसी का माथा ठनका और इस रिटायर आईएएस अफसर को पूछताछ के लिए तलब किया गया। इस शातिर अफसर ने अपने को बचाते हुए सारा ठीकरा सत्तारूढ़ दल के एक बड़े नेता पर थोप दिया। बताते हैं कि इस अफसर ने ये बात स्वीकार की कि उसने नेताजी के कहने पर ही बिल्डर के जरिये उलटे-पुलटे कामों को अंजाम दिया। माना जा रहा है कि चुनाव से पहले इस मामले में जबरदस्त धमाका होगा, जिसकी लपटें सत्तारूढ़ दल तक जाएंगी।

नैनिसार प्रकरण ः जनांदोलनों से बढ़ती अमर उजाला की वितृष्णा

By Rajiv Lochan Sah/Nainital/ नैनिसार प्रकरण पर कल 8 फरवरी को अल्मोड़ा में हुई रैली अदभुत थी. 1994 के राज्य आन्दोलन के बाद अल्मोड़ा में ऐसा जन सैलाब कभी नहीं उमड़ा. राज्य आन्दोलन के बाद हताश होकर घर बैठ गए अनेक पुराने दिग्गज इस रैली में थे तो उस युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि भी, जिसे हम अराजनैतिक मानते आये हैं. इस परिघटना में राज्य बनने के बाद पहली बार एक नए आन्दोलन की आहट सुनाई दे रही है. अब यह नेतृत्व के हाथ में है कि वह धैर्य, विवेक और समझदारी दिखा कर इस ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग करे, इसे स्खलित न होने दे.
दिक्कत अख़बारों की है. हिंदुस्तान और जागरण के हल्द्वानी संस्करणों ने इस खबर को पहले पेज पर छपा है तो अमर उजाला ने जनांदोलनों के प्रति अपनी वितृष्णा की परंपरा को बनाये हुए रख बिलकुल ही लापता कर दिया है. यानी उत्तराखंड के सबसे अधिक प्रसार वाले अखबार के सिर्फ अल्मोड़ा के पाठक, जो शायद वैसे ही इस रैली की गूँज सुन चुके होंगे, इस खबर को पढ़ेंगे. यानी इन तीन अख़बारों के पाठकों के सिर्फ 25 प्रतिशत को ही नैनिसार प्रकरण की जानकारी होगी. इस तथ्य को फिलवक्त देहरादून में रह रहे मेरे भतीजे के फोन सही साबित किया, जब हिन्दुस्तान में कल की रैली की खबर पढ़ कर उसने पूछा कि यह नैनिसार मामला है क्या ?
तब इस आन्दोलन का विस्तार कैसे होगा ? राज्य आन्दोलन में इसका बिलकुल उल्टा था. मीडिया आज का एक बटे दस था, मगर पूरी तरह आन्दोलन के साथ था. इस राज्य को बर्बाद करने में जितनी बड़ी भूमिका बेईमान राजनेताओं की है, उससे कम लालची मीडिया के नहीं.
नैनिसार आन्दोलन को इन्हीं सीमाओं के साथ आगे बढ़ाना होगा.

यादव सिंहों की सैरगाह बना उत्तराखंड

WatchDog/Deharadun/कमीशनखोरी के जरिये अपनी नामी-बेनामी संपत्तियों का विशाल साम्राज्य खड़ा करने वाले उत्तर प्रदेश के बदनाम इंजीनियर यादव सिंह को तो आखिरकार सीबीआई ने गिरफतार कर लिया, लेकिन उत्तराखंड में ऐसे दर्जनों यादव सिंह सरकारी संरक्षण में जमकर लूटखोरी में लगे हुए हैं। राज्य के सिंचाई विभाग से लेकर लोक निर्माण विभाग तक में ऐसे भ्रष्ट इंजीनियरों की भरमार है जो भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी में गहरे तक धंसे हुए हैं। जैसे-जैसे इन भ्रष्टों के रिटायरमेंट का वक्त नजदीक आता है इनकी भूख और बढ़ जाती है। लोक निर्माण विभाग में सबसे भ्रष्ट इंजीनियरों में शुमार किए जाने वाले मुलायम सिंह की भूख भी इन दिनों खूब कुलाचे भर रही है। रिटायरमेंट के दिन गिन रहे मुलायम सिंह की इस भूख से ठेकदार भी खासे परेशान हैं। केदारघाटी में दो साल पहले आई आपदा के बाद रूद्रप्रयाग में लोक निर्माण विभाग का मुखिया रहते हुए मुलायम सिंह ने जमकर आपदा के नाम पर माल कटाई की। मुलायम सिंह जैसों के जाल में फंसे स्थानीय ठेकेदार आज तक उबर नहीं पा रहे हैं। गाजियाबाद, मेरठ की कंपनियों के साथ सांठगांठ कर मुलायम सिंह जैसे अपना गोरखधंधा चलाते हैं। रूद्रप्रयाग के बाद मुलायम सिंह पिछले चार-छह महीने से पौड़ी में अपने गुल खिला रहे हैं। मुलायम सिंह के लिए पौड़ी इसलिए भी खास है कि संभवतः वे यहीं से रिटायरमेंट भी हो जाएंगे। रिटायरमेंट के दिन काट रहे मुलायम सिंह की भूख भी उसी गति से बढ़ रही है जिस गति से उनके आखिरी दिन करीब आ रहे हैं। बड़े ठेकेदारों को तो मुलायम सिंह की पैसों की इस भूख से ज्यादा परेशानी नहीं है, लेकिन पहाड़ों में रोजगार के साधन के तौर पर लोक निर्माण विभाग में ठेकेदारी करने वाले ठेकेदारों की एक बड़ी संख्या ऐसी है जो मुलायम सिंह से इन दिनों खासी परेशान बतायी जा रही है। नाम न छापने की शर्त पर ठेकेदारों के एक गु्रप ने बताया कि पौड़ी में इन दिनों कमीशनखोरी अपने चरम पर है। ठेकेदार बताते हैं कि कमीशनखोरी तो लोकनिर्माण विभाग की कार्यप्रणाली का हिस्सा है, लेकिन जब भी कोई बड़े अफसर रिटायरमेंट के करीब आता है तो उसकी भूख कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है। मुलायम सिंह के कारनामों की शिकायत हरीश रावत तक भी पहुंचायी गई, लेकिन कहीं से कोई हरकत नहीं है। सवाल यह है कि जब सत्ता के संरक्षण में ही कमीशनखोरी का खेल चल रहा हो तो मुलायम सिंह जैसों के हौसले तो बुलंद होंगे ही। मुलायम सिंह इस राज्य में वही कर रहे हैं जिसके लिए यहां के नेताओं ने उन्हें भरपूर प्यार और स्नेह आततक दिया है। मुलायम सिंह जैसे का हस्र तो यादव सिंह की तर्ज पर होना चाहिए, लेकिन जिस राज्य में नेता ही लूटमार करने में मस्त हों, वहां इसकी उम्मीद भी कैसे की जा सकती है।विजय बहुगुणा के कुशासन व घपले-घोटालों को खिलाफ भजन-कीर्तन करते हुए सीएम की कुर्सी तक पहुंचे हरीश रावत के राज में जो कुछ हो रहा है वह और भी परेशान करने वाला है। जिस हरीश रावत ने लोग उम्मीद पाल रहे थे कि वे भ्रष्टाचार के मुददे पर कोई ठोस कदम उठाएंगे, इस मामले में निराशा ही हाथ लगी। हरीश रावत के राज में न केवल भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी की विषवेला दिनोंदिन अपने पांव पसार रही है बल्कि जिस तेजी से इस राज्य में पिछले दो सालों में माफिया कल्चर अपने पांव पसार रहा है वह और भी खतरनाक है। वह चाहे कमीशनखोरी हो या फिर राज्य के संसाधनों को कौडि़यों के भाव बिल्डरों, माफियाओं और जिंदल जैसे धन्नासेठों के हाथों नीलाम करने का हो, हरीश रावत अपने पूर्ववर्तियों से कहीं आगे निकल गए हैं।

हरीश रावत के चेले ने लौटाई ‘भूत-बंगले’ की रौनक

WatchDog/ Deharadun/ राजभवन से सटे मुख्यमंत्री के बंगले में लम्बे समय बाद रौनक लौट आई है। जो बंगला इसलिए चर्चाओं का कारण बना हुआ है कि यहां जिस भी मुख्यमंत्री ने कदम रखा उसको या तो कुर्सी से हाथ धोना पड़ा या फिर बेआबरू होकर सत्ता गंवानी पड़ी। एनडी तिवारी जब मुख्यमंत्री हुआ करते थे तो कैंट रोड पर स्थित इसी बंगले से उन्होंने इस राज्य को उलटे-सीधे तौर तरीकों से हांकने का काम किया। खंडूड़ी, निशंक और बहुगुणा के बुरे सियासी हस्र के बाद तो इस बंगले को अपशकुनी माने जाना लगा। हालांकि खुलकर किसी ने भी अपशकुन की बात को स्वीकर नहीं किया, लेकिन मीडिया में लगातार इस अपशकुन की चर्चा होने के बावजूद किसी ने भी इसका खंडन नहीं किया। हरीश रावत जब सीएम बने तो उन्होंने भी नये सीएम आवास में जाने के बजाय बीजापुर स्थित सरकारी गेस्ट हाउस को ही अपना ठिकाना बनाना उचित समझा। करीब अठारह करोड़ की लागत से बने नये सीएम आवास पिछले पांच सालोें से वीरान पड़ा रहा। अब इस वीरानी को तोड़ने का काम राकेश शर्मा नाम के बहुचर्चित जीव ने किया है। मुख्य सचिव की कुर्सी से रिटायरमेंट के बाद से ही हरीश रावत के प्रधान सचिव बनाए गए राकेश शर्मा ने इस ‘अपशकुनी सीएम आवास’ को ही अपना ठिकाना बनाया हुआ है। इससे इस बंगले की रौनक बढ़ गई है। राकेश शर्मा के प्रेमियों का अब यही असल ठौर है जहां से शर्मा अपना दमखम दिखा रहे हैं।

दैनिक जागरण के कार्यालय पर लगाया कूड़े का ढेर

WatchDog//उत्तर प्रदेश में बुलन्दशहर की जिलाधिकारी बी चन्द्रकला के साथ एक युवक द्वारा सेल्फी लेने के प्रकरण ने रोचक मोड ले लिया है। अब दैनिक जागरण द्वारा अपने पत्रकार के साथ डीएम की बातचीत का आडियो जारी कर बी चन्द्रकला के खिलाफ अभियान चलाने से कर्मचारी संगठन भी मैदान में आ गए हैं। बुलन्दशहर के सफाई कर्मचारियों ने दैनिक जागरण की हरकतों को महिला विरोधी करार देते हुए उसके कार्यालय पर कूडे़ का ढेर लगा दिया है। जिस युवक को जेल भेजे जाने को लेकर यह विवाद शुरू हुआ है, उसका एक अहम तथ्य यह है कि उक्त युवक के निवेदन पर महिला जिलाधिकारी इस प्रकरण से पहले फोटो खिंचवा चुकी थी, लेकिन उक्त युवक जब एक बार फिर अधिकारियों के साथ बैठक कर रही डीएम के साथ फिर सेल्फी लेने का प्रयास करने लगा तो डीएम ने कड़ा रूख अख्तियार कर लिया। खबरों के अनुसार जागरण के पत्रकार ने जो आडियो रिकार्डिंग सार्वजनिक की है वह सेल्फी मामले में युवक के जेल भेजे जाने के चैबीस घंटे बाद की है। वहीं युवक को जेल भेजे जाने के चैबीस घंटे बाद दैनिक जागरण के पत्रकार द्वारा डीएम से इस घटना के बाबत बयान लेने पर भी सवाल उठ रहे हैं। सवाल यह है कि आखिर जागरण के पत्रकार को घटना के चैबीस घंटे बाद डीएम का बयान लेने की जरूरत क्या पड़ी?

खाता न बही, हरीश रावत और सीताराम केसरी

By Atul Sati/WatchDog/ “खाता ना बही जो हरीश रावत कहे वही सही “ ये स्थाई राजधानी के सन्दर्भ में उवाचे मुख्यमंत्री जी ! यही जुमला जोशीमठ में मेला उद्घाटन पर यहाँ के विधायक चिंगारी जी पर चिपकाए कि खाता ना बही जो ई कह दें उही सही ! सुनते हैं ये ही जुमला लाल कुआं में दुर्गापाल जी जी पर चेप देते हैं ! और भी जगह ये उहाँ के स्थानीयों पर कट पेस्ट होता रहा है ! अबके इसे अखिल उत्तराखंडीय बना दिए कि खाता बही का झंझट पूरा उत्तराखंड में ही खतम मांन लिया जाए ! कहते हैं जमाने पहले कांग्रेस के खजांची हुआ करते थे सीता राम केसरी जी !कांग्रेस के लिए फण्ड जुगाड़ने का जिम्मा उनका ही था ,उनके लिए ही ये जूमला इस्तेमाल हुआ करता था ! तब इसके मायने केसरी जी की इमानदारी के सन्दर्भ में प्रयुक्त होते होंगे ! किन्तु मुखमंत्री जिस तरह और जिस जिस के लिए इसका इस्तेमाल किये उससे इसका मतलब व सन्दर्भ पूरा उलट गया है !अब इसका मतलब निकलता है हमसे हिसाब किताब की बात तो करो मती ! बाकी जो करो सो कल्यो ….बन पड़े तो …! इक केंदर में जुमले बाज आये तो खरबूजे को देख के इनने भी रंग बदले !उनकी जो हो रही कच्ची वो सामने है इनका भी सतरा होना ई होना ठैरा …..!

क्या यह भी हरीश रावत जैसे लोगों का खेल है ?

By Suresh Nautiyal/WatchDog/Deharadun
जैसे-जैसे चुनावी वर्षाऋतु निकट आती जा रही है, वैसे-वैसे अनेक लोग मेंढ़कों की तरह टर्राने लगे हैं. इसी अंदाज़ में नयी-नयी राजनीतिक पार्टियां बन रही हैं. कोई किसी बहाने और कोई किसी बहाने! कोई पार्टी बंद कमरे में, कोई पार्क में और कोई फेसबुक पर बन रही है. पार्टी न होकर जैसे कोई पिकनिक हो गयी!
क्या यह भी हरीश रावत जैसे लोगों का खेल है, जिन्होंने उत्तराखंड आंदोलन के दौरान रातों-रात छप्पन (५६) संगठन खड़े कर दिए थे, राज्य आंदोलन को कमजोर करने के लिए? जनता सावधान रहे और पूरी जांच करे कि ठीक चुनाव से पहले ये राजनीतिक संगठन क्यों बनते हैं और चुनाव के बाद कहां खो जाते हैं! आप जानते ही हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान जिन बड़े-बड़े सेवानिवृत्त अधिकारियों ने दल बनाए थे, उनका अस्तित्व आज कहीं नहीं.
आज आये दिन जो पार्टियां बन रही हैं, उनका हस्र क्या यही होने वाला है? कहां गयी मुन्ना सिंह चौहान की पार्टी? कहां गयी पांगती की पार्टी? और, कहां गयी टीपीएस रावत की पार्टी?
चलो, यूकेडी ने राज्य की जनता के साथ धोखा किया और कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा सरकार का हिस्सा रही है.
पर भाई जनता के साथ २००९ जनवरी से ही खड़ी उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी क्यों नहीं दिखाई दे रही जिसने स्वास्थ्य और शिक्षा से लेकर श्रम के सम्मान और पीडीएस जैसे आन्दोलन किए तथा जिसके नेताओं ने वीरपुर-लच्छी से लेकर नानीसार तक में माफिया की मार खाई और जेल के कष्ट सहे और अनेक मुकदमे झेल रही है?
क्या इस बार का वोट उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के पक्ष में नहीं बनता?
क्या आपको निर्णय, क्रियान्यवयन और श्रेय में भागीदारी नहीं चाहिए?
यदि हां, तो आपका एकमात्र विकल्प इस बार उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी ही होना चाहिए!
जय उत्तराखंड, जय जगत!
सुरेश नौटियाल
केंद्रीय उपाध्यक्ष, उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी

…….राज्य गीत तुम्हारा हरगिज नहीं गाऊंगा

Deepak Azad//हरीश रावत के राज में जहां इस राज्य में माफियागिरी अपने चरम पर है तो दूसरी ओर कोदा-झंगोरा के गीत गाते हुए राज्य गीत के नाम पर सियासी कर्मकांड भी खूब हो रहा है। जिन अभावों, पीड़ाओं और सवालों को लेकर इस राज्य की लड़ाई लड़ते हुए लोगों ने शहादतें दी, उसके पीछे कई ऐसे गीतों का साथ रहा है जो आंदोलन के वक्त रचे गए। लेकिन हरीश रावत ने आंदोलन की प्राण-प्रतिष्ठा रहे जनगीतों के बजाय ठीक उसी तरह एक कर्मकांडी प्रतियोगिता के जरिये राज्यगीत की रचना की है जैसे वे एक राजनेता के तौर पर पिछले दो सालों से करते आ रहे हैं। बहुगुणा के कुशासन का राग अलापते-अलापते सीएम की कुर्सी तक पहुंचने के बाद हरीश रावत जिस लठैतगिरी के बीज इस राज्य में बो रहे हैं वह उनके असल इरादों को दर्शाता है। सवाल यह है कि वे चाहे राज्यगीत का कर्मकांडी उत्सव मनायें या फिर कुछ और, सवाल यह है कि इतिहास हरीश रावत को उनके पूर्ववर्तियों की ही पांत में खड़ा करेगा, या फिर वे उनसे भी गये गुजरे साबित होंगे? खैर, हरीश रावत की इस कर्मकांडी उत्सवधर्मिता पर जनसरोकारी पत्रकार दाताराम चमोली ने एक कविता के जरिये गंभीर सवाल उठाए हैं। प्रतिरोध का यह स्वर ही खुद को छली, लुटती-पिटती महसूस करती उत्तराखंड की जनता की असल आवाज है।

राजद्रोही कहलाना चाहूंगा
मगर राज्य गीत तुम्हारा
हरगिज नहीं गाऊंगा
मरते दम नहीं गाऊंगा।
पथरीले पहाड़ी रास्तों पर
फटी हैं मेरी भी एड़ियां
मगर खुद को “जमीनी” कह
बदनाम न होना चाहूंगा
हरगिज न होना चाहूंगा।
राजनीति करना चाहूंगा
मगर टोने-टोटकों की नहीं
केदार का बाघंबर उतार
अपना झंडा न बनाऊंगा
गीत आपदा पीड़ितों के ही गाऊंगा
गीत दर्द और संघर्ष के ही गाऊंगा
राज्य गीत मगर तुम्हारा
हरगिज नहीं गाऊंगा
मरते दम नहीं गाऊंगा।
[ दाताराम चमोली, 6 फरवरी 2016 ]

पत्रकार क्रांति भटट होंगे सम्मानित

By Shashi Bhushan Maithani Paras
पत्रकारिता का मजबूत चेहरा : क्रान्ति भट्ट होंगे यूथ आइकॉन Yi नेशनल अवार्ड 2015-16 से सम्मानित ।
WatchDog/Deharadun/पत्रकारिता में 30 वर्षों के लंबे समय का सफ़र तय करने वाले अनुभवी पत्रकार क्रांति भट्ट ने 1985 से पत्रकारिता की राह पर चलना आरम्भ किया था । तब उन्होंने दो वर्षों तक लखनऊ उत्तर प्रदेश में नव भारत टाइम्स में अपनी सेवा दी । उसके बाद क्रांति भट्ट ने नेपाल से प्रकाशित होने वाली अंतराष्ट्रीय पत्रिका हिंवाल में पत्रकारिता की थी । तब ढाई वर्षों तक नेपाल में काम करने के बाद क्रांति भट्ट खींचे चले आये अपनी जन्म स्थली देवभूमि गोपेश्वर (चमोली), फिर क्रांति भट्ट ने यह तय किया कि हमारे पहाड़ से देश और दुनियां को दिखाने और पढ़ाने के लिए अथाह भण्डार है तो क्यों न ऐसे में अपनी कलम का इस्तेमाल पहाड़ के लिए किया जाय ।
तब से लगातार इसी सोच के साथ सीमांत जनपद चमोली गोपेश्वर में रहते हुवे क्रांतिभट्ट पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हुवे आ रहे हैं इस दौरान इन्होंने अनेक पत्र पत्रिकाओं व 1992 से अब तक लगातार दैनिक हिन्दुस्तान समाचार पत्र के साथ जुड़कर अपनी कलम को पैनी धार दिए हुवे हैं ।
पत्रकारिता के मजबूत स्तम्भ क्रान्ति भट्ट जी स्वागत है आपका यूथ आइकॉन Yi नेशनल अवार्ड के मंच पर ।
सम्मान 21 फ़रवरी को माननीय मुख्यमंत्री जी के हाथों प्रदत्त किया जाएगा ।

  • शशि भूषण मैठाणी ‘पारस’
    संस्थापक / निदेशक
    यूथ आइकॉन Yi नेशनल अवार्ड
    एवं संस्थापक रंगोली आंदोलन

समाज कल्याण के घोटालेबाज पर मुख्यमंत्री मेहरबान

By Chandrashekhar Kargeti

बल #हरदा,
खाता ना बही जो सरकार करे वही सही…….

यह उत्तराखण्ड के जमीनी मुख्यमंत्री #हरीश_रावत जी का ही प्रताप है कि राज्य में समाज कल्याण विभाग के घोटालेबाज अधिकारीयों को गयी 26 जनवरी को उनके द्वारा पुरुष्कृत किया जाता है. मुख्यमंत्री द्वारा उन्हें पुरुष्कृत ही नहीं किया जाता बल्कि घोटालों को अंजाम देने के एवज में उन्हें उनके मन माफिक राज्य में मलाईदार जगह पर पोस्टिंग भी दी जाती है, मुख्यमंत्री द्वारा गणतंत्र दिवस के अवसर पर ऐसे अधिकारियों को दिये गये पुरुष्कार के मायने भी शायद यही है.

राज्य के समाज कल्याण विभाग में पदस्थापित ऐसे अधिकारीयों के खिलाफ उनके घोटालों को लेकर अगर गलती से कभी शासन में कोई फाईल बन भी जाती है तो उस पर उतनी त्वरित गति से कार्यवाही नहीं हो पाती है जितनी त्वरित गति से हमेशा जिंदल जैसों को नैनीसार में दी जाने वाली भूमि आवंटन जैसे प्रकरणों की फाईल पर होता है !!

ऐसा नहीं है कि राज्य के मुख्यमंत्री इन सब घोटालों से वाकिफ नहीं है, उन्हें सब मालूम होता है, कार्यवाही इसलिए नहीं होती कि उन्ही के सरकार के मंत्रीयों से लेकर विधायकों तक में आपसी हिस्सा बाँट जो रहती है. ऐसे मामलों की फाईल को डस्टबीन में डालने के लिए विभाग में अपर सचिव और सयुंक्त सचिव और अनुभाग अधिकारी जैसे लोग होते ही है. बाकी जिसकी सीधी पहुँच दरबार में हो तो फिर निदेशक फिदेशक को कौन पूछ रहा होता है.

राज्य के दलित, गरीब,पिछड़े और महिलाओं के साथ खिलवाड़ के ये मामले मुख्यमंत्री के लिए चिंता और कार्यवाही का विषय इसलिये नहीं होते क्योंकि ऐसे मामलों पर जनआन्दोलन कभी नहीं होते हैं, और जब तक जनांदोलन ना हो तब तक उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री की नींद टूटती भी नहीं है. बाकी फिर अगर कभी मामला ज्यादा तूल पकड़ भी जाए तो सरकार का संकट मोचक ईटीवी का छोरा एक्क्लुजिव इंटरव्यू के लिए मौजूद होता ही है, जो जनता के सवाल परदे पर ना लाकर अपने खयाली और सरकार के पक्ष के सवाल दिखा कर सरकार से इनाम ले ही लेता है.

सच में लोकतंत्र में कितनी निर्लज्ज होती है सरकारें और कितने बेशर्म होते हैं उनके मंत्री, विधायक और शासन में बैठे नकारा अफसर ! जो ऐसे घोटालेबाजों को भरपूर संरक्षण देते है. हम आप ग्याडू तो बस हिसाब लगाते रहे कि पेंशन का एक चेक कितने रूपये का होगा ? एक इतने का तो 6909 चेक कितने के ? इन सबके बीच ये अपना काम हर साल निर्बाध एंव बेखोफ रूप से करते ही रहते है, हाँ कभी खुंदकवश पकड में आ गये तो बचाने को शासन में आका बैठे ही होते है.

बल,
मजबूरों के हिस्से की इस लूट में ऊपर से नीचे तक सब हिस्सेदार होते हैं, मुख्यमंत्री से लेकर विभाग के निदेशक तक, बाबू से लेकर चपरासी तक, अगर इनमें से किसी एक की भी हिस्सेदारी नहीं है तो विभाग में ऐसे अधिकारीयों की मौज कैसे ?

                  लेखक चन्द्रशेखर करगेती की फेसबुक वाॅल से साभार

जनता विशवास करती है कोई मुहर नहीं देखती

Yuva Deep Pathak//WatchDog//क्रांति की आसन्न बेला में जारकालीन रुस में बोल्शेविक सेनाऐं लड़ रहीं थीं ,दासता और युद्ध से तंग आ चुकी जनता भी क्रांति चाहती थी और गांव शहर सब जगह क्रांतिकारियों की मदद करती थी !
एक वाकया यूं पेश आया कि एक छोटा सैन्य दस्ता किसी गांव से गुजरा और गांव के किसान से उसका घोड़ा मांग लिया बोले “क्रांति के बाद लौटा देंगे !” किसान बोला तो कोई लिखत रसीद दे दो घोड़ा ले जाओ !” तो किसी ने कागज पर यूं ही लिख दिया “इस किसान का घोड़ा ले जा रहे हैं क्रांति के बाद लौटा देंगे !” बस न दस्तखत न मुहर, किसान ने अपना एकमात्र घोडा दे दिया और लिखत रख ली !
तो साब दिन बीते क्रांति हो गयी लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक सरकार बन गयी पर उस किसान को घोड़ा वापस न मिला वो जहां भी जाकर वो कागज दिखाये अधिकारी पूछें कि इस पर न दस्तखत हैं न मुहर कैसे मान लें ?
तंग आकर किसान मास्को पहुंच गया और राष्ट्रपति कामरेड लेनिन को कागज दिखाया और घोड़ा मांगा लेनिन ने फौरन नया घोड़ा देने का आदेश दिया और किसान की भागदौड़ का मुआवजा देने को कहा !
जब बात आयी कि इसमें कोई मुहर नहीं कोई दस्तखत नहीं तो आपने कैसे घोड़ा देने को कह दिया ?
कामरेड लेनिन ने कहा उसने विशवास किया था और घोड़ा दे दिया “जनता जब विशवास करती है तब कोई दस्तखत कोई मुहर नहीं देखती”
तो साब बात ये कि उत्तराखंड आंदोलन में दिल्ली कूच में बसें मालिकों ने दीं पेट्रोल पंप वालों ने तेल फ्री दिया होटल वालों ने हमसे खाने के पैसे नहीं लिये… वो प्यार वो विशवास तब भी जनता कोई मुहर कोई दस्तखत नहीं देख रही थी और उत्तराखंड बन भी गया बन के लुट रहा है उजड़ रहा है बिक रहा है और विरोध करने वालों,सच कहने वालों का मुंह बंद किया जा रहा है जेल-मुकदमे किये जा रहे हैं और वही जनता सब देख रही है और फिर बदल देगी !
इन्होंने जनता से घोड़ा (सत्ता) तो ले ली अब उसपे सवार हैं पर लौटा नहीं रहे जब लौटाऐंगे नहीं तो छीन लिया जायेगा !
क्योंकि जनता दस्तखत या मुहर नहीं देखती उन लड़ते हुए लोगों के दस्ते को देखती है जो अन्याय के खिलाफ लड़ने जा रहे हैं !

<strong>समाज व राजनीति की हलचलों पर गहरी निगाह रखने वाले दीप पाठक की फेसबुक वाॅल से साभार</strong>

यादव सिंहों की सैरगाह बना उत्तराखंड

WatchDog/Deharadun/कमीशनखोरी के जरिये अपनी नामी-बेनामी संपत्तियों का विशाल साम्राज्य खड़ा करने वाले उत्तर प्रदेश के बदनाम इंजीनियर यादव सिंह को तो आखिरकार सीबीआई ने गिरफतार कर लिया, लेकिन उत्तराखंड में ऐसे दर्जनों यादव सिंह सरकारी संरक्षण में जमकर लूटखोरी में लगे हुए हैं। राज्य के सिंचाई विभाग से लेकर लोक निर्माण विभाग तक में ऐसे भ्रष्ट इंजीनियरों की भरमार है जो भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी में गहरे तक धंसे हुए हैं। जैसे-जैसे इन भ्रष्टों के रिटायरमेंट का वक्त नजदीक आता है इनकी भूख और बढ़ जाती है। लोक निर्माण विभाग में सबसे भ्रष्ट इंजीनियरों में शुमार किए जाने वाले मुलायम सिंह की भूख भी इन दिनों खूब कुलाचे भर रही है। रिटायरमेंट के दिन गिन रहे मुलायम सिंह की इस भूख से ठेकदार भी खासे परेशान हैं। केदारघाटी में दो साल पहले आई आपदा के बाद रूद्रप्रयाग में लोक निर्माण विभाग का मुखिया रहते हुए मुलायम सिंह ने जमकर आपदा के नाम पर माल कटाई की। मुलायम सिंह जैसों के जाल में फंसे स्थानीय ठेकेदार आज तक उबर नहीं पा रहे हैं। गाजियाबाद, मेरठ की कंपनियों के साथ सांठगांठ कर मुलायम सिंह जैसे अपना गोरखधंधा चलाते हैं। रूद्रप्रयाग के बाद मुलायम सिंह पिछले चार-छह महीने से पौड़ी में अपने गुल खिला रहे हैं। मुलायम सिंह के लिए पौड़ी इसलिए भी खास है कि संभवतः वे यहीं से रिटायरमेंट भी हो जाएंगे। रिटायरमेंट के दिन काट रहे मुलायम सिंह की भूख भी उसी गति से बढ़ रही है जिस गति से उनके आखिरी दिन करीब आ रहे हैं। बड़े ठेकेदारों को तो मुलायम सिंह की पैसों की इस भूख से ज्यादा परेशानी नहीं है, लेकिन पहाड़ों में रोजगार के साधन के तौर पर लोक निर्माण विभाग में ठेकेदारी करने वाले ठेकेदारों की एक बड़ी संख्या ऐसी है जो मुलायम सिंह से इन दिनों खासी परेशान बतायी जा रही है। नाम न छापने की शर्त पर ठेकेदारों के एक गु्रप ने बताया कि पौड़ी में इन दिनों कमीशनखोरी अपने चरम पर है। ठेकेदार बताते हैं कि कमीशनखोरी तो लोकनिर्माण विभाग की कार्यप्रणाली का हिस्सा है, लेकिन जब भी कोई बड़े अफसर रिटायरमेंट के करीब आता है तो उसकी भूख कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है। मुलायम सिंह के कारनामों की शिकायत हरीश रावत तक भी पहुंचायी गई, लेकिन कहीं से कोई हरकत नहीं है। सवाल यह है कि जब सत्ता के संरक्षण में ही कमीशनखोरी का खेल चल रहा हो तो मुलायम सिंह जैसों के हौसले तो बुलंद होंगे ही। मुलायम सिंह इस राज्य में वही कर रहे हैं जिसके लिए यहां के नेताओं ने उन्हें भरपूर प्यार और स्नेह आततक दिया है। मुलायम सिंह जैसे का हस्र तो यादव सिंह की तर्ज पर होना चाहिए, लेकिन जिस राज्य में नेता ही लूटमार करने में मस्त हों, वहां इसकी उम्मीद भी कैसे की जा सकती है।विजय बहुगुणा के कुशासन व घपले-घोटालों को खिलाफ भजन-कीर्तन करते हुए सीएम की कुर्सी तक पहुंचे हरीश रावत के राज में जो कुछ हो रहा है वह और भी परेशान करने वाला है। जिस हरीश रावत ने लोग उम्मीद पाल रहे थे कि वे भ्रष्टाचार के मुददे पर कोई ठोस कदम उठाएंगे, इस मामले में निराशा ही हाथ लगी। हरीश रावत के राज में न केवल भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी की विषवेला दिनोंदिन अपने पांव पसार रही है बल्कि जिस तेजी से इस राज्य में पिछले दो सालों में माफिया कल्चर अपने पांव पसार रहा है वह और भी खतरनाक है। वह चाहे कमीशनखोरी हो या फिर राज्य के संसाधनों को कौडि़यों के भाव बिल्डरों, माफियाओं और जिंदल जैसे धन्नासेठों के हाथों नीलाम करने का हो, हरीश रावत अपने पूर्ववर्तियों से कहीं आगे निकल गए हैं।

हरीश राज में बेखौफ हुआ माफिया, मैखुरी ने चिठठी लिखकर दी आंदोलन की धमकी

प्रति,
श्रीमान मुख्यमंत्री महोदय,
उत्तराखंड शासन,
देहरादून.
द्वारा-श्रीमान जिलाधिकारी,जिला चमोली,गोपेश्वर.

महोदय,
राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति बेहद चिंताजनक होती जा रही है और अपराधी तत्व बेख़ौफ़ घूम रहे हैं.यहाँ तक कि अपराधी तत्व प्रशासनिक अधिकारियों पर हमला करने में भी नहीं हिचक रहे हैं.ऐसा ही एक वाकया चमोली में घटित हुआ.अवैध खनन पर छापा मारने गयी प्रभारी तहसीलदार पर 26 जनवरी को खनन माफिया ने हमला बोल दिया.अवैध खनन में लिप्त अपराधी तत्व इस कदर बेख़ौफ़ हैं कि इस महिला अधिकारी को कुचलने की कोशिश की गयी.यह बेहद चिंताजक स्थिति है.
महोदय,इससे अधिक चिंताजनक यह है कि अपराधी तत्व तो अपराध कर रहे हैं,लेकिन जिन्हें अपराधियों पर नकेल कसनी है,वे सिर्फ जुमलेबाजी कर रहे हैं.प्रभारी तहसीलदार पर हमले की घटना और अपराधी के विरुद्ध नामजद रिपोर्ट के बावजूद अभी तक अपराधी की गिरफ्तारी नहीं हो सकी है.महोदय,यदि एक प्रशासनिक अफसर पर हमले के अपराधियों को यदि गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है तो क्या आम नागरिक न्याय की अपेक्षा कर सकता है?यह समझ से परे है कि प्रभारी तहसीलदार द्वारा नामजद रिपोर्ट लिखवाये जाने के बावजूद “जांच जारी है” जैसे टरकाऊ वाक्यांशों से ही पुलिस काम चला रही है?महोदय,इस बात का जवाब तो राज्य की सरकार को भी देना होगा कि आखिर यह किसका दबाव है कि एक महिला अफसर पर हमला करने वाले अपराधी को गिरफ्तार करने में पुलिस कोताही बरत रही है?क्या खनन माफिया, उत्तराखंड सरकार के लिए इतने महत्वपूर्ण और प्रिय हैं कि उनके लिए अपने प्रशासनिक अफसर की कुर्बानी भी दी जा सकती है?खनन माफिया द्वारा प्रशासनिक अफसरों और आन्दोलनकारियों पर हमला करने का यह दुस्साहस मैदानी जिलों से होता हुआ पर्वतीय जिलों में पहुँच गया है.यदि खनन माफिया,हत्या का प्रयास करने में भी नहीं हिचक रहे हैं तो यह बिना किसी उच्च स्तरीय संरक्षण के संभव नहीं है.
महोदय,यदि प्रशासन और शासन की प्रतिबद्धता में कानून-व्यवस्था के लिए लेशमात्र भी स्थान हो तो चमोली में प्रभारी तहसीलदार पर हमले के आरोपी को अविलम्ब गिरफ्तार किया जाना चाहिए.यदि ऐसा न किया गया तो इसके विरुद्ध आन्दोलन किया जाएगा.
सधन्यवाद,
सहयोगाकांक्षी,

इन्द्रेश मैखुरी
राज्य कमेटी सदस्य
भाकपा(माले)

जो शराब बिकवाता है वह देश का दुश्मन है

By Purushottam Asnora/नशा नही रोजगार दो आन्दोलन की 32 वीं वर्षगांठ
गैरसैंण,2 फरवरी/ आज के ही दिन अल्मोडा जिला के बसभीडा ग्राम से शराब के विरुद्ध उठी जंग ने उत्तराखण्ड में एक ऐतिहासिक आन्दोलन ‘नशा नही रोजगार दो‘ को जन्म दिया। उत्तराखण्ड में शराब को बुराई की हद तक घृणा करने वाले समाज में 6 ठें दशक तक बुराई और आतंक का रुप ले लिया था। सर्वोदयी कार्यकर्ताओं ने विभिन्न स्थानों पर सशक्त आन्दोलन चलाकर नशे का प्रतिकार किया और बाध्य होकर उप्र सरकार को उत्तराखण्ड के पहाडी जिलों में नशाबन्दी लागू करनी पडी।
नशाबन्दी की तोड शराब माफिया ने तस्करी और आयुर्वेदिक दवाओं के नाम पर सुरा, संजीवनी सुरा, बायोटांनिक और भी कितने ही नामों से 45 प्रतिशत से अधिक एल्कोहल के जहर खुले आम बेचने प्रारम्भ कर दिए। कहना न होगा कि इन्हें बेचने और बिकवाने वाला माफिया सत्ता के भी दलाल थे।
दो फरवरी 1984 को बसभीडा में उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी के बैनर तले नशा तंत्र के विरुद्ध आन्दोलन का निर्णय लिया गया जिसमें बडी संख्या में महिलाऐं भी थी। बसभीडा से प्रारम्भ आन्दोलन उत्तराखण्ड के गांव-गांव तक पहुंच गया। आन्दोलन के नारे थे-
जो शराब पीता है-वह परिवार का दुश्मन है।
जो शराब बेचता है-वह समाज का दुश्मन है
जो शराब बिकवाता है-वह समाज का दुश्मन है
शराब पीने वाले परिवार से दुश्मनी, बेचने वाले समाज से और बिकवाने वाले देश से दुश्मनी करते रहे हैं। आज भी आवकारी को प्रदेश के राजस्व का मुख्य स्रोत मानने वाले लोग अपनी भूमिका तय करें तो अच्छा होगा।
नशा नही रोजगार दो आन्दोलन के ही एक नायक सरकार की जिन्दल गु्रप के साथ पहाडी जमीन की बन्दरबाट के विरुद्ध आन्दोलन में सरकार और माफिया साजिश के शिकार हो जेल में हैं। उत्तराखण्ड के जल-जंगल-जमीन से लडने वाले नायकों मुकाबला सत्ता के उन दलालों से है जो सातवें दशक में लीसा-लकडी, उसके बाद शराब और अब जमीन के लिए चुनौती भी है कि आजीवन जनता के लिए लडने वाले लोग और आजीवन सत्ता की राजनीति का यह मुकाबला जनता के दम पर ही जीता जा सकेगा। जनता की जीत का सिपाही यदि कैद में हो तो जिम्मेदारी बडी हो गयी है, ये महसूसना होगा।

साभार http://gairsainsamachar09.blogspot.in/

इस भाजपाई नेता के लिए बधाई तो बनती ही है

WatchDog//सत्ताधारी कांग्रेसी हों या फिर 2017 में वापसी का सपना देख रहे भाजपाई जरा भी इस राज्य के प्रति ईमानदार होते तो आज डेढ दशक बाद उत्तराखंड के हालात कुछ और होते। दोनों ही पार्टियां इस राज्य को दिशाहीनता के दलदल में धकेलने की कसूरवार रही हैं। आज जो भ्रष्टाचार, कुशासन और लठैतराज दिख रहा है उसको पनपाने में इन दोनों का भी बराबर का सहभाग रहा है। इस राज्य के संसाधनों को लूटने-लुटाने के खेल में कोई भी पीछे नहीं रहा है। भ्रष्टाचार के सवाल पर दोनों ही पार्टियां चोर-चोर मौसेरे भाई की तर्ज पर काम करती रही हैं। यही वजह है कि उत्तराखंड में चुनाव के वक्त वोटों के लिए भ्रष्टाचार और घपले-घोटालों को आधार बनाकर चुनावी फसल तो काटने की कोशिश होती है लेकिन जब घोटालेबाजों के खिलाफ कार्रवाई करने का समय आता है तो दोनों ही पार्टियां खामोश हो जाती हैं। मुख्यमंत्री रहते हुए बीसी खंडूड़ी ने मजबूत लोकायुक्त कानून पारित कर एक कोशिश जरूर की, लेकिन कांग्रेसियों ने उसे भी विफल कर दिया। आज स्थिति यह है कि तीन साल से यह राज्य लोकायुक्तविहीन चल रहा है। जिस तरह से हरीश रावत लोकायुक्त के मसले पर लुकाछुप्पी का खेल खेल रहे हैं उससे लगता नहीं कि उनकी मंशा इसे लागू करने की है। लेकिन अब मामला देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंचने से उम्मीद जगती है कि हरीश रावत को देर सबेर लोकायुक्त की नियुक्ति करनी ही पड़ेगी। इस पूरे मामले को दिल्ली भाजपा के नेता व एडवोकेट अश्वनी उपाध्याय सुप्रीम कोर्ट तक ले गए हैं। अगले कुछ दिनों में उपाध्याय की उत्तराखंड में लोकायुक्त की नियुक्ति की मांग वाली याचिका पर सुनवाई होने की उम्मीद है। उत्तराखंड में भाजपाइयों की सरकार के साथ चलने वाली मिलीभगत के बीच लोकायुक्त के मसले पर सरकार पर दबाव बनाने के लिए उपाध्याय की सराहना तो की ही जानी चाहिए।

एक बार इस बारे में जरुर सोचना साहब !!!

By Jagmohan Rautela/

मॉ-बाप ने पढ़ाया लिखाया और बच्चे को आईएएस बनने को प्रेरित किया . वह बना भी . नातेदारों ने खूब बधाई दी . पूरी जात बिरादरी गर्दन ऊँची कर चलने लगी . सरकार ने जिले का मालिक बना दिया तो हनक ही दूसरी हो गयी .
इस सब के बाद भी काम क्या मिला ? सड़क से अतिक्रमण हटाने का . गरीब की सब्जी की टोकरी को अतिक्रमण के नाम पर लात मारने का . क्या करना ऐसा आईएएस बनकर .
अतिक्रमण के लिये लोगों के साथ ही सम्बंधित विभाग के अधिकारियों के ऊपर जब तक कार्यवाही नहीं होगी , तब तक अतिक्रमण होते रहेंगे और जिले के हुक्मरान सब्जी वाले की टोकरी पर लात मारकर अपना फोटू छपवाते रहेंगे .
हुक्मरान क्या ये नहीं जानते कि खतरनाक अस्थाई नहीं स्थाई अतिक्रमण है . हर रोज सत्ता के ताकतवर लोग अतिक्रमण कर रहे हैं , उन्हें हटाने की हिम्मत क्यों नहीं ?
इससे यह भी पता चलता कि जिले के हुक्मरान की अपने मातहतों पर बिल्कुल नहीं चलती .अन्यथा मजाल है कि कहीं भी अतिक्रमण होता ? साहब और भी बहुत जरुरी काम हैं लोगों के उन्हें हल करो . सब्जी की टोकरी पलटने का काम अपने मातहत को ही करने दें तो अच्छा होगा . उसको भी जवाबदेह बनाओ . वह भी तो आपकी ही व्यवस्था का अंग है और व्यवस्था का हर अंग जब तक सही तरीके से काम नहीं करेगा तब तक अराजकता हर पल हावी रहेगी साहब !!

पी.सी. तिवारी का हरीश रावत को जेल से खुला पत्र

सेवा में,
माननीय मुख्यमंत्री हरीश रावत जी
उत्तराखण्ड सरकार,
देहरादून

माननीय मुख्यमंत्री जी,

एक स्थानीय चैनल ईटीवी पर कल रात व आज सुबह पुनः नानीसार पर आपका विस्तृत पक्ष सुनने का मौका मिला। आपकी इस मामले में चुप्पी टूटने ये यह साबित हुआ कि उत्तराखण्ड में संघर्षरत जनता की आवाज आपकी पार्टी की सियासी सेहत को नुकसान पहुंचाने लगी है।

लेकिन आपका वक्तव्य ध्यान से सुनने और मनन करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि आपके वक्तव्य में सच्चाई का नितांत अभाव था और एक बार फिर अपनी गरदन बचाने के लिए आप नानीसार के ग्रामीणों की दुहाई देकर पूरे उत्तराखण्ड व देश को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं। जनता इस बात को कितना समझती है, इसके लिए थोड़ा वक्त का इंतजार करना पड़ेगा पर आपको अपने छात्र व सामाजिक जीवन से मैंने जितना जाना समझा है, उसके आधार पर मैं कह सकता हूॅं कि इतने बड़े संवैधानिक व जिम्मेदारी वाले पद पर पहुंचने के बाद भी आपकी फितरत नहीं बदली। इसे मैं उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य ही कहूंगा। आप भी कहें न कहें इस सच्चाई को मन ही मन आप भी जरूर स्वीकारेंगे।

रावत जी, आपने अपने पत्र में जिस वैचारिक भिन्नता बात कही है , वह सही है। आप यह भी जानते हैं कि आपका विचार हमसे अकसर मेल नहीं खाता है तो भी हम अपने विचारों और संकल्पों पर दृढ़ता से कायम रहने वाले लोग हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो आपके फेंके चारे को खाकर कुछ लोगों की भांति हम भी गरीब, भूमिहीन, दलित को अपने पक्ष में गुमराह करने का माध्यम बने होते और आपकी कृपा व इशारे से जिंदल ग्रुप के गुण्डो द्वारा खुद मारपीट और जानलेवा हमला कर अनुसूचित जाति जनजाति के लगाए गए झूठे मुकदमे में जेल में नहीं होते।

रावत जी, आपको मैं याद दिलाना चाहूंगा कि कुमाऊॅं विश्‍वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर का छात्रसंघ अध्यक्ष रहते हुए हमने अपने संस्थान के एक सफाईकर्मी श्री नन्हे लाल वाल्‍मीकि से 1978 के छात्रसंघ समारोह का उद्घाटन कराया था। लेकिन इससे आपको क्या, आपके लिए तो दलित और आदिवासी मात्र वोट बैंक हैं और उसे पाने लिए आप हर स्तर पर तिकड़म करते हैं। शराब, पैसा बांटकर लोकतंत्र का हनन करते हैं। क्या मैं कुछ अधिक कड़वी सच्चाई कह गया? लेकिन उत्तराखण्ड आंदोलन को दलित विरोधी करार देने वाले आपके दलित नेता आज उन दलित भूमिहीनों को भूल गए हैं जिनके पक्ष की आवाज हम आज भी लगातार उठाए हुए हैं। ऐसे नेता प्रदेश में आपदा प्रभावित, दलितों, भूमिहीनों के हक जमीन को जिंदल व अन्य पूंजीपतियों को कौड़ियों के भाव अवैध ढंग से देने के मामले में आज भी मौन हैं।

माननीय मुख्यमंत्री जी, नानीसार का लेकर स्थानीय चैनल ईटीवी पर आपने जो कहा वह तथ्यात्मक रूप से भी गलत है। आज जानते हैं या नहीं, अपनी आदत के अनुसार आप जानबूझ कर अनजान बने रहना चाहते हैं। आप जानते हैं कि यह सच है कि स्थानीय डीडा गांव के लोग उनके नानीसार तोक की जमीन जिंदल को दिए जाने के खिलाफ 25 सितम्बर 2015 से ही आक्रोशित हैं। आपकी शह पर वहां तभी से भारी मशीनें, अवैध कटान का उपयोग कर जिंदल के गुण्डों ने कब्जा कर दिया था। जिस ग्राम प्रधान की सहमति का आप टीवी में जिक्र कर रहे थे उसके इस कृत्य के लिए ग्रामीण उसका ग्राम सभा में बहिष्‍कार कर चुके हैं। इस बाबत ग्रामीणों ने सूचना अधिकार से प्रक्रिया को जानना चाहा तो उन्हें ज्ञात हुआ कि ग्राम प्रधान ने गलत ढंग से ग्रामीणों को गुमराह किया। इस बाबत ग्रामीण जिलाधिकारी को अनेकों बार ज्ञापन भी दे चुके है तथा तभी से लगातार आंदोलन कर इस पूरे मामले की जांच की मांग करते आ रहे हैं। लेकिन शासन-प्रशासन ने इसे संज्ञान में नहीं लिया। अब यह मामला अदालत में है। लोकतंत्र में क्या आप इसे ग्रामीणों की सहमति कहेंगे? डीडा के ग्रामीण राज्य स्थापना दिवस से मेरे जेल जाने तक क्रमिक धरना और भूख हड़ताल कर रहे थे। क्या यही जिंदल को जमीन देने की सहमति हैं। 22 अक्टूबर को जब बिना लीज पट्टा निर्गत किए आप भाजपा सांसद मनोज तिवारी को विशिष्‍ट अतिथि बनाकर वहां अपने होनहार पुत्र के साथ कथित इंटरनेशनल स्कूल का उद्घाटन करने पहुंचे, तो भी ग्रामीणों को प्रबल विरोध आपको नहीं दिखा। तब भी आपकी पुलिस के हाथों पिटती ग्रामीण महिलाएं और क्षेत्र के लोग क्या जिंदल को जमीन देने के समर्थन में थे?

रावत जी, मुझे आश्‍चर्य होता है कि, एक जिम्मेदार पद पर विराजमान होते हुए आप इतने भोले कैसे बन जाते हैं। यहां मैं आपको याद दिला दूूं कि आपने 28 नवम्बर को मीडिया को सार्वजनिक बयान देकर कहा था कि यदि ग्रामीण चाहेंगे तो जमीन सरकार वापस ले लेगी लेकिन दो महीने से अधिक समय बीत जाने के बाद भी आपने इस दिशा में कोई निर्णय नहीं लिया। अंतरराष्‍ट्रीय मानव अधिकार दिवस 10 दिसम्बर को नैनीसार बचाओ संघर्ष समिति के बैनर तले डीडा के ग्रामीणों ने हर परिवार के व्यक्ति के हस्ताक्षरों से एक ज्ञापन जिलाधिकारी के द्वारा आपको भेजा जिसमें इस भूमि आवंटन को खत्म करने की मांग थी। लोकतंत्र में इसे भी क्या लोगों की सहमति कहेंगे? आपकी शह पर बिना लीज पट्टा निर्गत किए वहां चल रहे निर्माण कार्य व नियम विरूद्ध भारी तार बाड़, ग्रामीणों के रास्ते, पानी पर कब्जा, वहां बुरांस, काफल के पेड़ों का दोहन देखकर हर उत्तराखण्डी को आक्रोश आएगा। वहां सिविल जज अल्मोड़ा सीनियर डिविजन के स्थगन आदेश के बाद भी आपकी सरकार उस अवैध निर्माण को नहीं रोक पा रही है। ऐसे में आप मुझ जैसे निरीह उत्तराखण्डी पर, जिसे आपकी शह और इशारे पर जिंदल के अज्ञात गुण्डों व कथित अंगरक्षकों द्वारा मारपीट कर अपमानित किया जा रहा है और आरोप है कि मैं अपने विचारों का आप पर थोप रहा हूूॅं। क्या मेरी ऐसी हैसियत है?

जब 26 जनवरी को नानीसार में आपके प्रशासन के अनेक स्थानों पर रोकने के बाद भी वहां पहुंची 400 के आसपास जनता के समक्ष वहां एक स्‍चतंत्रता संग्राम सेनानी द्वारा राष्‍ट्रीय ध्वज फहराया गया, तो आपके सिपहसालारों और जिंदल के दबंगों ने उस झण्डे को वहां से उतारकर फेंक दिया। रावत जी क्या आप चाहते हैं कि नानीसार को लेकर जिस तरह पूरे प्रदेश व देश में सामाजिक कार्यकर्ता व राजनीतिक कार्यकर्ता संघर्ष में उतरकर उसका विरोध कर रहे हैं, उन सब पर आपकी कोई समझ नहीं है, कृपया इसे स्पष्‍ट करने की कृपा करें।

मुख्यमंत्री जी, जो कुछ आप टीवी पर बोंल रहे थे, स्थिति उसके विपरीत है। आपने भूमि की जांच हेतु स्वयं वरिष्‍ठतम अधिकारी राधा रतूड़ी व शैले श बगौली की कमेटी तीन नवम्बर 2015 को गैरसैंण में घोषित की थी।यदि आप अपने निर्णय पर दृढ़ थे तो फिर दिखाने के लिए वह कमेटी क्यों बनाई,?और इस कमेटी ने अब तक क्या किया? यदि सब कुछ ठीक है तो आपकी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष इस मामले में जाॅंच कमेटी क्यों घोषित कर रहे हैं? रावत जी, सुना तो यह भी जा रहा है कि आपने पता नहीं किन कारणों से भूमि आवंटन की यह विवादास्पद पत्रावली अपने वरिष्‍ठतम सहयोगी राजस्व मंत्री श्री यशपाल आर्य को भी नहीं भेजी। तब अपने विचारों व निर्णयों को आप थोप रहे हैं या सच्चाई यह है कि सत्ता का दुरूपयोग करे हुए आप अपनी मनमानी पर उतर आए हैं और राज्य के हितों से खिलवाड़ कर रहे हैं, यह जानते हुए कि इसका खामियाजा हमारी आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा।

जहां तक आपके द्वारा वैकल्पिक विकास माॅडल के सुझावों का मामला है, तो क्या आपने इसके लिए कभी रायशुमारी की? क्या आपकी सरकार ने उत्तराखण्ड राज्य की लड़ाई में शामिल हम जैसे सिपाहियों से इस मामले में संवाद शुरू किया? जबकि आप जानते हैं कि पिछले 4 दशकों से हम लोग इस राज्य में तमाम मुददों पर लड़ रहे हैं फिर ऐसे तोहमत आप हमपर कैसे लगा सकते हैं?

मुख्यमंत्री जी यदि आपको राज्य में शिक्षा और स्वास्थ्य की इतनी ही चिंता है तो इसे व्यापार क्यों बना रहे हैं? सरकार की जिम्मेदारी क्या है? फिर क्यों स्वास्थ्य व शिक्षा के कारण राज्य में पलायन बढ़ रहा है? सरकारी चिकित्सालयों व स्कूलों की दुर्दशा आप जानते हैं। आप इसमें सरकार की जिम्मेदारी क्यों नहीं तय करते? सरकार का काम है कि हर नागरिक को समान और गुणवत्तापूर्वक शिक्षा व स्वास्थ्य दे । हम स्वयं इस कार्य में आपका हर स्तर पर सहयोग करने को तैयार है, लेकिन आप हैं कि लगातार बड़े-बड़े मुनाफाखोर निजी स्कूलों के उद्घाटन समारोहों में ही नजर आ रहे हैं।

मुख्यमंत्री जी, सोशल मीडिया में आपको जमीनी नेता के स्थान पर जमीन का नेता कह कर स्वयं आपके अपने व्यंग्‍य करने लगे हैं पर आपकी कार्यप्रणाली को देखकर ऐसा लगता है कि आप राज्य की सवा करोड़ जनता की भावना, सोच, विचार से नहीं वरन अपनी सोच और विवेक पर ही भरोसा करते हैं। ऐसे में तमाम संस्थाओं का क्या महत्व है? इसके बावजूद नानीसार को लेकर मैं आपको एक सुझाव दे सकता हूँ। यदि आप उचित समझें तो जेएनयू की तर्ज पर जो आवासीय विश्‍वविद्यालय आप अपने जन्मदिन पर हर जिले में खोलने की घोषणा कर चुके हैं, उसे नानीसार में खोलने की घोषणा करें। लेकिन जिंदल के हितों के सामने शायद आपको मेरा यह सुझाव पसंद न आए।

रावत जी, आप बार-बार इस कथित अंतरराष्‍ट्रीय स्कूल से रोजगार देने की बात कर रहे हैं। अभी तक हमें सूचना अधिकार से मिले सरकारी दस्तावेजों में इसके बारे में कोई प्रमाण नहीं मिला। स्पष्‍ट है यह सब जुबानी जमा खर्च है। यदि आप इस पर सोच रहे हैं तो यह जनता का दबाव नहीं है जिसमें आप अपने तरकश में कोई भी तीर रख सकते हैं। आप बता सकते हैं कि केवल पांच माह में आपकी सरकार ने जमीन आवंटन करने का जो शासनादेष जारी किया उसमें रोजगार भर्ती की क्या व्यवस्था है, गांव के किसानों के बच्चों की पढ़ाई की क्या व्यवस्था है। यदि नहीं, तो मैं समझता हूँ कि मुख्यमंत्री जैसे गरिमापूर्ण पद पर बैठे व्यक्ति को सदैव जिम्मेदारी से सच बोलना चाहिए। अन्यथा इस पद का भी अवमूल्यन होने लगता है।

खैर, शायद मेरा पत्र लंबा होने लगा है। यदि वक्त मिला और आपके संरक्षण में पल रहे जिंदल और उसके गुण्डों से मैं और मेरा परिवार सुरक्षित रहा तो जरूर मैं जनता के समक्ष आपसे खुली बहस करने को तैयार हूँ और आप मेरे इस निमंत्रण को स्वीकारें, ताकि आपके विचार और अनुभवों से उत्तराखण्ड की जनता और मैं कुछ सीख सकें।

बुरा न मानें, यह लोकतंत्र हैं। आपके लाख जुल्म हों, मैं तो अपनी बात कहूंगा।

पी.सी. तिवारी
केंद्रीय अध्यक्ष, उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी
जिला कारागार अल्मोड़ा
29 जनवरी, 2016
संपर्क- 9412092159

भ्रष्टाचार में घिरे डीजीपी, नैनीसार प्रकरण और चिरकुटाई करते अमर उजाला का शहीदी अंदाज

देहरादून। करोडों की जमीन के फर्जीवाड़े में घिरे डीजीपी बीएस सिद्वू और अमर उजाला में पिछले कुछ दिनों से युद्वु चल रहा है। शायद उत्तराखंड में यह पहला मामला है जब किसी व्यापक प्रसार संख्या वाले दैनिक अखबार ने विज्ञापन न मिलनेपर इस तरह किसी नौकरशाह के खिलाफ मोर्चा खोला है। जिस अंदाज में अमर उजाला रिटायरमेंट के दिन गिन रहे सिद्वूके खिलाफ मोर्चा खोलते हुए खुद को शहीदी अंदाज में पेश कर रहा हैवह हैरान करने वाला तो है ही, साथ उसकी नियत पर पर सवाल भी उठाता है। मिसाल के तौर पर अमर उजाला की चिरकुटाईको सोमवार को ‘ डीजीपी पर सवाल, अंगुलियां सरकार पर’ शीर्षक से छपी खबर कोपढकर लगाया जा सकता है। अमर उजाला लिखता है‘ एक पाठक ने बताया कि सीबीआई ने एक मामले में जांच की अनुमति चाही थी, राज्य सरकार ने दी ही नहीं, वरना डीजीपी की तो कहानी कब की खत्म हो गई होती। इस लड़ाई में ही सही लेकिन अमर उजाला को चाहे था कि वह उस मामले पर रोशनी डालता जिसको लेकर सीबीआई ने जांच की अनुमति मांगी थी। खबरों की दुनिया के छल कपट को जानने-समझने वाले जान सकते हैं कि खबरों की ऐसी बुनावट के असल मायने क्या होते है। अमर उजाला की जनपक्षधरता को अगर आंकना है तो पिछले दिनोंनैनीसार मेंउत्तराखंड परिर्वतन पार्टी के नेता पीसी तिवारी के साथ धनपशु जिंदल केगुंडों ने जिस तरह मारपीट की, को लेकर अमर उजाला के रूख को लेकर किया जा सकता है। जहां मीडिया का बडे हिस्से ने खुलकर इस बात को सामने रखा कि आंदोलनकारियों के साथ जिंदल के लोगों ने मारपीट की, वहीं अमर उजाला अपनी खबरों मं मारपीट को ही संदिग्ध बताता रहा।

धनपशु मीरचंदानी के प्रेम में उत्तराखंड सरकार ने किया 12 मौतों का सौदा?

By Deepak Azad / Deharadun/  सालों पहले दिल्ली के उपहार सिनेमा में फिल्म देखने गए 59 महिलाए, बच्चे और छात्र-नौजवान असंल बंधुओं की मुनाफाखोरी से दहकती आग में चल बसे। पीडि़तों के परिजनों के लम्बे संघर्ष के बाद सुरक्षा मानकों से खिलवाड़ करने वाले असंल बंधुओं को जेल की सजा भी हुई, लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने गिरफom parkashतारी के वक्त जेल में बिताए गए दिनों को ही सजा मानते हुए 60 करोड़ के जुर्मानें के साथ असंल बंधुओं को रिहा कर दिया। यह हमारी न्यायिकव्यवस्था का वह चेहरा है जिसका दिल रह-रहकर कभी सलमान खान जैसों के लिए धड़कता है तो कभी मुनाफाखोर असंल बंधुओं के लिए। यह तो सीधे-सीधे धन-दौलत के बल पर न्याय के पलड़े को धनपशुओं के पक्ष में करना जैसा है। अगर मान लें कि अंसल बंधुओं केपास जुर्मानें के लिए पैसा नहीं होता तो तब भी क्या इस देश की सर्वोच्च अदालत ऐसा फैसला सुनाती? खैर मुनाफाखोरों, धनपशुओं के प्रति यह सहानुभूति, वह चाहे राजनीति हो या फिर नौकरशाही सब जगह मौजूद है। जरा याद करें अपने उत्तराखंड में भी पांच साल पहले रूड़की में ओनिडा कंपनी के कारखाने में भी धनपशुओं ने ऐसा ही एक अग्निकांड को अंजाम दिया था, जिसमें 12 मजदूर ‘जलाकर’ मार दिए गए थे। तब भुवन चन्द्र खंडूड़ी राज्य के मुख्यमंत्री हुआ करते थे और आज के हरीश रावत दिल्ली में मंत्री। दोनों ने ही घटनास्थल का दौरा कर मृतकों के परिजनों को न्याय का भरोसा दिलाया था, लेकिन आज इस पर कोई बोलने वाला नहीं है। इस बीच विजय बहुगुणा के राज में जब जून 2013 में यह राज्य आपदा की मार झेल रहा था, तब सरकार ने पूरी बेशर्मी के साथ इस अग्निकांड में आरोपी बनाए गए ओनिडा के मालिक जीएल मीरचंदानी को आरोपी की श्रेणी से न केवल बाहर कर दिया गया, बल्कि ओनिडा के कारखाना मैनेजर सुधीर महेन्द्रा से भी एफआइआर में दर्ज गंभीर धाराओं को हटा दिया गया। यह पूरा खेल करने वाला वही नौकरशाह ओम प्रकाश है जिसे हरीश रावत ने शराब सीडी की जांच का जिम्मा सौंपा है। यह पूरा खेल तब किया गया जबकि कोर्ट ने ओनिडा के मालिक के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी किए हुए थे। जाहिर सी बात है कि ओम प्रकाश ने हजारों करोड़ की धन-दौलत वाली ओनिडा कंपनी के मालिक के खिलाफ फोकट में तो यह दरियादिली नहीं दिखाई होगी? इस दरियादिली के पीछे एक बड़ी डील को अंजाम दिया गया। सूत्र बताते हैं कि यह रकम तीस करोड़ के आसपास थी, जिसके बदले इस अग्निकांड को रफा-दफा कर दिया गया। इसमें विजय बहुगुणा और उनके पुत्र साकेत की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। चूंकि यहां मरने वाले सभी मजदूर थे, लिहाजा उनकी क्या औकात कि वे धनपशुओं के साथ उनकी मौत का सौदा करने वाले नेताओं और ओम प्रकाश जैसे नौकरशाहों के खिलाफ कुछ कह-बोल सकें? मैं यकीनी तौर पर कह सकता हूं कि यदि इस मामले की इमानदारी से पैरवी हो तो ओमप्रकाश और उनके मातहती चेलों का खाया-पिया देर-सबेर सब बाहर आने में देर नहीं लगेगी। क्या हरीश रावत, अपने इस प्रमुख सचिव और इस मामले में लीपापोती करने वाले दूसरे अफसरों के खिलाफ कार्रवाई का साहस दिखा पाएंगे? क्या वे ऐसी इमानदार जांच करा सकते हैं जो इस कांड के गुनाहगारों को सजा दिला सके?

उत्तराखंडसमाचार डाॅट काॅम के साथ शंकर सिंह भाटिया ने रखे न्यू मीडिया में कदम

WatchDog//media sदेहरादूनः उत्तराखंड के जनसरोकारी पत्रकार शंकर सिंह भाटिया ने उत्तराखंड समाचार डाॅट काॅम के जरिये न्यू मीडिया में कदम रख लिए हैं। ऐसे दौर में जब पत्रकारिता में सरोकार की जगह दलाली और भांडगिरी ने ले ली है तब भी शंकर सिंह भाटिया अपनी पूरी सार्मथ्य के साथ जनता के असल मुददों को बिना लागलपेट के उठाते रहे हैं। मुख्यमंत्री हरीश रावत ने स्वतंत्रता दिवस पर अपने आवास में आयोजित कार्यक्रम में उत्तराखंड समाचार डाॅट काॅम का उदघाटन किया। इस दौरान सीएम हरीश रावत ने अधिकारियों को जल्द ही न्यूज पोर्टल के लिए नीति लागू करने निर्देश दिए। मुख्यमंत्री हरीश रावत ने महानिदेशक सूचना विनोद शर्मा को निर्देश दिए कि प्रदेश सरकार की पोर्टल नीति को शीघ्र लागू किया जाए। उन्होंने जरूरत के अनुसार नीति को सहज बनाने के भी निर्देश दिए। मुख्यमंत्री ने कहा कि समाचारों की दुनिया तेजी से बदल रही है। इस डिजिटल युग में वेब पोर्टल के महत्व को समझा जा सकता है। इसकी पहुंच विश्व स्तर तक है। इसका लाभ लोगों को मिलना चाहिए। उन्होंने सूचना महानिदेशक विनोद शर्मा से कहा कि इस संबंध कैबिनेट ने फरवरी 2015 में ही नीति जारी कर दी थी। उसे लागू करने के लिए कदम उठाएं।  महानिदेशक सूचना विनोद शर्मा ने कहा कि सोसल मीडिया अब घर-घर पहुंच गया है। लोगों की इसमें रुचि बढ़ती जा रही है, लेकिन कई लोग नकारात्मक तरीके से इसका उपयोग कर रहे हैं। इस पर रोक लगाना सभी का कर्तव्य होना चाहिए। उन्होंने कहा कि वेब पोर्टल नीति को बहुत जल्दी लागू किया जा रहा है। इस दौरान उत्तराखंडसमाचारडाॅटकाम के संपादक शंकर सिंह भाटिया ने कहा कि वेब पत्रकारिता समय की जरूर है। पोर्टल में समाचार लिखने वाले और पढ़ने वाले के बीच सीधे संवाद होता है, जिससे समाचार की वस्तुनिष्ठा और पारदर्शिता बनी रहती है।

पोर्नोग्राफी पर कच्छाधारियों, मौलवियों, पादरियों व गांधीवादियों की जुबान क्यों बंद हो गई?

ramdevडाॅ वेद प्रताप वैदिक /WatchDog///  इंटरनेट पर दिखाई जाने वाली अश्लील वेबसाइटों के बारे में सरकार ने शुरू में बहुत ही अच्छा रवैया अपनाकर 857 अश्लील वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन फिर उसने सिर्फ बच्चों की अश्लील वेबसाइटों पर अपने प्रतिबंध को सीमित कर दिया। सूचना एवं तकनीकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इसकी घोषणा की। सरकार ने यह शीर्षासन क्यों किया? सरकार ने यह शीर्षासन किया, अंग्रेजी अखबारों और चैनलों की हायतौबा के कारण! किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वह अश्लीलता के समर्थकों का विरोध करे। इससे साफ जाहिर होता है कि स्वतंत्र भारत में भी दिमागी गुलामी की जड़ें कितनी गहरी और हरी हैं। आप यदि अंग्रेजी में कोई अनुचित और ऊटपटांग बात भी कहें, तो वह मान ली जाएगी। मुझे आश्चर्य है कि संसद और विधानसभाओं में भी किसी नेता ने इस मुद्‌दे को नहीं उठाया। देश में संस्कृति और नैतिकता का झंडा उठाने वाली संस्थाओं-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आर्यसमाज और गांधी-संस्थाओं की चुप्पी भी आश्चर्यजनक है। सारे साधु-संतों, मुल्ला-मौलवियों, ग्रंथियों और पादरियों का मौन भी चौकाने वाला है। शायद इसका कारण यह भी हो सकता है कि इन्हें पता ही न हो कि इंटरनेट पोर्नोग्राफी क्या होती है। यह तो इंदौर के वकील कमलेश वासवानी की हिम्मत है कि उन्होंने इस मामले को अदालत में लाकर अश्लील वेबसाइटों के माथे पर तलवार लटका दी है।

यदि जनता के दबाव के आगे कोई सरकार झुकती है तो इसे मैं अच्छा ही कहूंगा। इसका मतलब यही है कि सरकार तानाशाह नहीं है। भूमि-अधिग्रहण विधेयक पर भी सरकार ने लचीले रवैए का परिचय दिया है, लेकिन अश्लीलता के सवाल पर क्या सरकार यह कह सकती है कि वह लोकमत का सम्मान कर रही है? दस-बीस अंग्रेजी अखबारों में छपे लेखों और लगभग दर्जन भर चैनलों की हायतौबा को क्या 130 करोड़ लोगों की राय मान लिया जा सकता है? इसके पहले कि सरकार अपने सही और साहसिक कदम से पीछे हटती, उसे एक व्यापक सर्वेक्षण करवाना चाहिए था, सांसदों की एक विशेष जांच समिति बिठानी चाहिए थी, अपने मार्गदर्शक मंडल से सलाह करनी चाहिए थी। ऐसा किए बिना एकदम पल्टी खा जाना किस बात का सूचक है? एक तो इस बात का कि वह सोच-समझकर निर्णय नहीं लेती और जो निर्णय लेती है, उस पर टिकती नहीं है यानी उसका आत्म-विश्वास डगमगा रहा है। यदि मोदी सरकार का यह हाल है तो देशवासी अन्य सरकारों से क्या उम्मीद कर सकते हैं?

अब संघ स्वयंसेवकों की यह सरकार अपनी पीठ खुद ठोक रही है कि हमने वेबसाइट आॅपरेटरों को नया निर्देश दिया है कि वे बच्चों से संबंधित अश्लील वेबसाइटों को बंद कर दें। बेचारे आॅपरेटर परेशान हैं। वे कहते हैं कि कौन-सी वेबसाइट बाल-अश्लील है और कौन-सी वयस्क-अश्लील हैं, यह तय करना मुश्किल है। सिर्फ बाल-अश्लील वेबसाइटों पर प्रतिबंध को अदालत और सरकार दोनों ही उचित क्यों मानती हैं? उनका कहना है कि इसके लिए बच्चों को मजबूर किया जाता है। वह हिंसा है। लालच है। मैं पूछता हूं कि वयस्क वेबसाइटों पर जो होता है, वह क्या है? ये वयस्क वेबसाइटें क्या औरतों पर जुल्म नहीं करतीं? औरतों के साथ जितना वीभत्स और घृणित बर्ताव इन वेबसाइटों पर होता है, उसे अश्लील कहना भी बहुत कम करके कहना है। पुरुष भी स्वेच्छा या प्रसन्नता से नहीं, पैसों के लिए अपना ईमान बेचते हैं। उन सब स्त्री-पुरुषों की मजबूरी, क्या उन बच्चों की मजबूरी से कम है? हमारी सरकार के एटार्नी जनरल अदालत में खड़े होकर बाल-अश्लीलता के खिलाफ तो बोलते हैं, जो कि ठीक है, लेकिन महिला-अश्लीलता के विरुद्ध उनकी बोलती बंद क्यों है? यह बताइए कि इन चैनलों को देखने से आप बच्चों को कैसे रोकेंगे? इन गंदे चैनलों के लिए काम करने वाले बच्चों की संख्या कितनी होगी? कुछ सौ या कुछ हजार? लेकिन इन्हें देखने वाले बच्चों की संख्या करोड़ों में है। क्या आपको अपने इन बच्चों की भी कुछ परवाह है या नहीं? सारे अश्लील वेबसाइटों पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन पैसे की खदान है। यह पैसा सरकारों को भी बंटता है। सरकारें ऐसे वेबसाइटों को इसलिए भी चलाते रहना चाहती हैं कि जनता का ध्यान बंटा रहे। उसके दिमाग में बगावत के बीज पनप न सकें। रोमन साम्राज्य के शासकों ने अपनी जनता को भरमाने के लिए हिंसक मनोरंजन के कई साधन खड़े कर रखे थे। पश्चिम के भौतिकवादी राष्ट्रों ने अपनी जनता को अश्लीलता की लगभग असीम छूट इसीलिए दे रखी है कि वे लोग अपने में ही मगन रहें, लेकिन इसके भयावह दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। हिंसा और दुष्कर्म के जितने अपराधी अमेरिकी जेलों में बंद हैं, दुनिया के किसी देश में नहीं हैं।

यह तर्क बहुत ही कमजोर है कि सरकार का काम लोगों के शयन-कक्षों में ताक-झांक करना नहीं है। लोग अपने शयन-कक्ष में जो करना चाहें, करें। इससे बढ़कर गैर-जिम्मेदाराना बात क्या हो सकती है? क्या अपने शयन-कक्ष में आप हत्या या आत्महत्या कर सकते हैं? क्या दुष्कर्म कर सकते हैं? क्या मादक-द्रव्यों का सेवन कर सकते हैं? ताक-झांक का सवाल ही तब उठेगा, जबकि आप गंदी वेबसाइटें छुप-छुपकर देख रहे हों। जब गंदी वेबसाइटों पर प्रतिबंध होगा तो कोई ताक-झांक करेगा ही क्यों? उसकी जरुरत ही नहीं होगी। हर शयन-कक्ष की अपनी पवित्रता होती है। वहां पति और पत्नी के अलावा किसका प्रवेश हो सकता है? यदि आप गंदी वेबसाइटों को जारी रखते हैं तो उनसे आपका चेतन और अचेतन इतने गहरे में प्रभावित होगा कि वह कमरों की दीवारें तोड़कर सर्वत्र फैल जाएगा। यह अश्लीलता मनोरंजक नहीं, मनोभंजक है। यही हमारे देश में दुष्कर्म और व्याभिचार को बढ़ा रही है। यदि यह अश्लीलता अच्छी चीज है तो इसे आप अपने बच्चों, बहनों और बेटियों के साथ मिलकर क्यों नहीं देखते? आपने सिनेमा पर सेंसर क्यों बिठा रखा है? आप लोगों को पशुओं की तरह सड़कों पर ऐसा करने की अनुमति क्यों नहीं देते? यह तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सर्वोच्च उपलब्धि होगी! अश्लील पुस्तकें तो बहुत कम लोग पढ़ पाते हैं। अश्लील वेबसाइटें तो करोड़ों लोग देखते हैं। आपको पहले किस पर प्रतिबंध लगाना चाहिए?

इन अश्लील वेबसाइटों की तुलना खजुराहो और कोणार्क की प्रतिमाओं तथा महर्षि वात्स्यायन के कामसूत्र से करना अपनी विकलांग बौद्धिकता का सबूत देना है। कामसूत्र काम को कला के स्तर पर पहुंचाता है। उसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का अंग बनाता है। वह काम का उदात्तीकरण करता है जबकि ये अश्लील वेबसाइटें काम को घृणित, फूहड़, यांत्रिक और विकृत बनाती हैं। काम के प्रति भारत का रवैया बहुत खुला हुआ है। वह वैसा नहीं है, जैसा कि अन्य देशों का है। उन संपन्न और शक्तिशाली देशों को अपनी दबी हुई काम-पिपासा अपने ढंग से शांत करने दीजिए। आप उनका अंधानुकरण क्यों करें?

लेखक डॉ. वेदप्रताप वैदिक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं.

यह आलेख भड़ास से साभार

हरीश रावत के अंगना में ……………….

flagWatchDog// सीएम हरीश रावत के आंगन में राकेश्वा नाम का झंडा पूरी बुलंदी से लहरा रहा है। हरीश रावत, राकेश शर्मा की ‘बेमिसाल इमानदारी’ पर कुछ इस तरह फिदा हैं कि मुख्य सचिव बनने से पहले अपर मुख्य सचिव रहते हुए औद्योगिक विकास, वित्त और नागरिक उडडयन जैसे अहम महकमे संभालने वाले राकेश शर्मा को मुख्य सचिव के तौर पर भी इन विभागों की जिम्मेदारी दे दी गई है। मुख्य सचिव की नियुक्ति के दो सप्ताह के बाद हरीश रावत को लगा कि राकेश शर्मा जैसी काबिलियत का अफसर उनके पास नहीं है, लिहाजा मुख्य सचिव को ही इन विभागों को दे दिया गया। शर्मा की काबिलियत तो एक मुददा है, लेकिन असल सवाल उन घोटालों पर अगले कुछ महीनों तक पर्दा डाले रखना है जिनमें सालों तक रहने के दौरान शर्मा ने अंजाम दिया है। सिडकुल से लेकर नागरिक उडडयन तक कई भीमकाय घोटाले अंजाम दिए गए हैं। याद करें जब कुछ दिनों के लिए सरकार ने सिडकुल में एमडी की कुर्सी पर शैलेश बगोली को बैठा दिया था तो तब बंगोली ने बताया था कि कैसे जिस काम को करने के लिए उत्तराखंड पावर कार्पोरेशन बीस करोड़ ले रहा था उसी काम को उत्तर प्रदेश निर्माण निगम से कई गुना ज्यादा पर करवाने की कोशिश हो रही थी। तब बंगोली ने राकेश शर्मा एंड कंपनी के षडयंत्रों को नाकाम कर दिया था। बगोली ने कई प्रोजेक्टस की थर्ड पार्टी जांच शुरू कर भुगतान तक रोक दिया था। लेकिन बंगोली की यह इमानदारी हरीश रावत को भी हजम नहीं हुई और तीन महीने के भीतर ही बगोली को सिडकुल से चलता कर दिया गया। उनकी जगह पर शर्मा ने अपने खासमखास नौकरशाह राजेश कुमार को बैठा दिया। राजेश कुमार सिडकुल को कुछ वैसे ही हांक रहे हैं जैसे कि शर्मा चाहते हैं। ये साहब भी राकेश शर्मा के भावी उत्तराधिकारियों में से एक हैं।

गुटका माफिया के आगे नतमस्तक हरीश रावत!

hareshBy Deepak Azad/ WatchDog/  खनन और शराब माफिया से सांठगांठ के आरोपों में घिरे मुख्यमंत्री हरीश रावत इन दिनों एक तीसरे किस्म के माफिया के चरणों में नतमस्तक हुए दिखते हैं! राज्य में आधिकारिक तौर पर प्रतिबंध लगे होने के बावजूद धड़ल्ले से गुटके का गोरखधंधा चल रहा है। विजय बहुगुणा के राज में राज्य में गुटके की बिक्री पर रोक लगा दी गई थी, लेकिन आज भी कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से हर साल  लोगों को मौत के मुंह में धकेलने वाले गुटके का गोरखधंधा बेरोकटोक यहां चल रहा है। सवाल यह है कि आखिर जब राज्य में गुटके पर प्रतिबंध है तो फिर किसकी शह पर गुटका माफिया धड़ल्ले से मौत का यह जहर बेच रहा है? गुटके के इस गोरखधंधे से जुड़ा एक सूत्र का कहना है कि प्रतिबंध के बावजूद गुटका बेचने के लिए उन्हें हर माह घूसखोरों को चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक राज्य में हर माह करीब दस करोड़ का केवल गुटका ही बिकता है। खैनी और सिगरेट इसमें शामिल नहीं है। प्रतिबन्ध के बाद खुदरा मार्केट में गुटका एमआरपी से दुगने से ज्यादा मूल्य पर बेचा जा रहा है। इसके पीछे घूसखोरी को ही मुख्य कारण माना जा रहा है। यही स्थिति देहरादून में बड़ी मात्रा में बिकने वाले गोल्डन ब्रांड की खैनी की भी है। पांच रूपये एमआरपी वाली डोल्डन ब्रांड खैनी खुदरा मार्केट में आठ से नौ रूपये में बिक रही है। गुटके और तम्बाकू से न केवल कैंसर जैसी घातक बीमारी की चपेट में इसका सेवन करने वाले आ रहे हैं, बल्कि ब्लैक मार्केटिंग की वजह से राज्य को राजस्व का भी नुकसान हो रहा है। अगर इस गोरखधंधे से किसी का भला हो रहा है तो वो गुटका-तम्बाकू माफिया का हो रहा है या फिर सरकार में बैठे घूसखोरों का।